Tuesday, 21 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 21 January 2014  
(पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        एक बार मेरे जीवन में घोर दुःख हुआ । उस दुःख से दुःखी होकर सोचने लगा कि मुझे इस अभावयुक्त जीवन को नहीं रखना चाहिये । जिस जीवन की माँग संसार को नहीं है, उस जीवन को रखने से कोई लाभ नहीं । यह नियम है कि यदि दुखी अपने दुःख का कारण किसी और को न माने, तो  दु:ख दुखी के प्रमाद का विनाश कर देता है । यह जो हम आज दुखी होते हैं और हमारा विकास नहीं होता है, उसका कारण एक मात्र यही है कि हम दुःख का कारण दूसरों को मानते हैं । यदि हम अपने दुःख-काल में अपने दुःख का कारण किसी और को न मानें, तो वह हमारा दुःख हमारे प्रमाद को खा लेता है और जब वह दुःख प्रमाद को खा लेता है, तो जीवन में एक नवीन आशा का संचार हो जाता है और एक ऐसा पथ दीख जाता है, जो चेतना देता है । दुःखी में कर्त्तव्यपरायणता का उदय हो जाता है ।

        जब दुःख ने मुझ पर कृपा की और मेरे प्रमाद को हर लिया, तब मैं विचार करने लगा कि हे संसार देवता ! तुम मुझे इसलिये नहीं चाहते कि मैं तुम्हारे काम नहीं आ सका; पर, तुम भी तो मेरे काम न आ सके । इस विचार के दृढ़ होते ही मुझे अपने में और संसार में समानता का अनुभव होने लगा । उसके होते ही दीनता का दुख मिट गया, उसके मिटते ही अभिमान भी गल गया, उसके गलत ही जीवन विवेक के प्रकाश से प्रकाशित हो गया और फिर जो मेरे बिना रह सकता है, उसके बिना रह सकने का साहस हो गया, जिसने  जीवन को साधन-युक्त कर दिया और मैंने यह नियम बना लिया कि उन प्रवृत्तियों का आरम्भ ही न करूँगा जिनमें दूसरों का हित तथा प्रसन्नता निहित नहीं है । कुछ काल निवृत्ति में रहने से सर्वहितकारी प्रवृत्ति को शक्ति स्वत: आ जाती है, यह प्राकृतिक नियम है ।

        अत: जब मैं संसार से विमुख होकर शान्त रहने लगा, तब संसार को स्वत: आवश्यकता होने लगी । किन्तु, जब-जब सम्मान के रस में आबद्ध हुआ, तब-तब संसार मुझसे विमुख होने लगा । मेरा यह अनुभव है कि संसार से सुख लेने की आशा ने ही सदैव दुःख दिया है और बेचारे दुःख ने सदैव संसार से निराश होने का पाठ पढ़ाया है, जिससे दुःखी-से-दुःखी को भी नित्य-चिन्मय आनन्द मिला है । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि साधक भयङ्कर से भयङ्कर परिस्थिति में भी साधन का निर्माण कर सकता है और साध्य से अभिन्न हो सकता है ।

        उपर्युक्त पाठ ने बोलने की सामर्थ्य होते हुए भी वाणी को मौन कर दिया, गति रुकने लगी, चंचलता स्थिरता में बदलने लगी, और जैसे-जैसे चंचलता स्थिरता में बदलने लगी, वैसे-वैसे छिपे हुए राग की पूर्ति भी होने लगी । अर्थात् जिस दुःख से दुःखी होकर मन संसार से निराश हुआ था, वह दुःख सुख में बदलने लगा । यह मेरा ही अनुभव नहीं है, बहुत से साधकों का अनुभव है। कारण कि, यह नियम है कि जिस कठिनाई को शान्तिपूर्वक सहन कर लिया जाता है, वह कठिनाई स्वयं हल हो जाती है। शान्तिपूर्वक सहन करने का अर्थ है, अपने दुःख का कारण किसी और को न मानकर दुख को सहन कर लेना । सुख आने पर अपने से दुखियों को बिना किसी अभिमान के वितरण कर देना चाहिये, चूँकि सुख वास्तव में दुखियों की ही धरोहर है, उसे अपना नहीं मानना चाहिये । अन्तर केवल यह है कि आस्तिक उस सुख को प्रभु के नाते दुखियों को भेंट करता है, तत्वज्ञ सर्वात्मभाव से और सेवक विश्व के नाते ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 55-57) ।