Monday, 9 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 09 December 2013 
(मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
असाधन-रहित साधन - 3
                   
यदि आप कहें कि जब तक हमें रुचिकर और सामर्थ्य के अनुरूप साधन का ज्ञान ही न हो, तब तक क्या करें ? तब तक न करने वाली बात न करते हुये आप आराम करें - पूर्ण विश्राम । क्यों ? जहाँ करना साधन है, वहाँ न करना भी साधन है । गलत करना असाधन है । अकर्मण्यता असाधन है । आलस्य असाधन  है । लेकिन विश्राम और सही करना, ये दोनों ही साधन हैं । अत: जब तक आपको कोई रुचिकर साधन नहीं मालूम है, कोई ऐसा साधन नहीं ज्ञात है, जो आपकी सामर्थ्य के अनुसार हो, तब तक आप न करने ताली बातों के त्यागपूर्वक आराम करें । आराम से आपकी कोई क्षति नहीं होगी। तो होगा क्या ? अगर आपके अहंभाव में करने की रुचि विद्यमान है और इस समय आप अपने कर्त्तव्य के ज्ञान से अपरिचित हैं, तो आराम करने से कर्त्तव्य की स्मृति स्वत: जाग्रत होगी और सामर्थ्य आयेगी । तो कर्त्तव्य का ज्ञान और उसको करने की सामर्थ्य आपको मंगलमय विधान से स्वत: मिलेगी । आराम की यह महिमा है । इसलिए न करने वाली बात न करने पर भी आपका सर्वतोमुखी विकास होगा और करने वाली बात करने से भी आपका विकास होगा । किन्तु न करने वाली बात भी करते रहें और करने वाली बात करें, तो विकास कभी नहीं होगा । इसलिये मानव-सेवा-संघ ने प्रत्येक साधक से अपने से ऐसा पूछने की अपील की है, यह प्रार्थना की है कि 'हे साधक ! तू अपनी असफलता से पीड़ित क्यों नहीं है ?’ तू क्यों नहीं देखता कि मेरे जीवन में सफलता क्यों नहीं है ? यदि असफलता है, तो उसका मतलब यह नहीं है कि तू सफलता का अधिकारी नहीं है। सफलता का तो तू अधिकारी है ही, परन्तु असाधन के साथ-साथ बलपूर्वक जो साधन करता है, इसीलिए तू असफल है ।

तो भाई, तात्पर्य यह निकला कि किसी भी प्रकार से किसी भी परिस्थिति में असाधन नहीं करना है । उसके पश्चात् अगर किसी बाह्य गुरु की आवश्यकता होगी, तो यह जिम्मेदारी विधान पर है कि वह तुमको गुरु से मिला दे । अगर किसी भी प्रकार की सामर्थ्य की आवश्यकता होगी, तो यह दायित्व विधान पर है कि वह तुम्हें सामर्थ्य प्रदान करे । सारी अनुकूलताएँ, जिनके द्वारा साधन में सिद्धि होती है, आपको बिना माँगे मिलेंगी । यह विधान की बात है । इसलिए किसी भी साधक को कभी भी जीवन में सफलता से निराश नहीं होना चाहिये, हार मान कर नहीं बैठना चाहिये । परन्तु अपने को क्षमा भी नहीं करना चाहिये । अपने को क्षमा करने का अर्थ क्या है ? 'हम क्या करें, साहब, तुमने बात ही ऐसी कह दी कि हमें क्रोध आ गया ।' बाबू ! किसी की बात कहने से क्रोध आ गया, इसका अर्थ तो यह हुआ कि मछलियाँ कहें कि हम क्या करें, जल की लहरों से हम क्षोभित हो गये हैं ! भला जल की उछल-कूद मछलियों को क्षोभित करेगी ? एक बात, अथवा मछलियों की उछलकूद जल को क्षोभित करेगी ? जरा सोचिये तो सही । सो तो नहीं कर सकती । तो मेरा निवेदन केवल यही था कि यदि कोई ऐसा कहे, 'किसी ने ऐसी भूल की, इसलिये हमें क्रोध आ गया' । तो यह अपने को क्षमा करने की बात है । 'हम क्या करें, हमें परिस्थिति ने मजबूर किया, इसलिए हमने ऐसा कर दिया ।' यह अपने को क्षमा करने की बात है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 58-60)