Sunday, 08
December 2013
(मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७०, रविवार)
असाधन-रहित साधन
- 3
सिद्धि तो सभी भाइयों को, सभी बहिनों को मिल सकती है, इसमें कोई संदेह की बात
नहीं है । परन्तु विध्यात्मक साधन अर्थात् करने वाली बात सभी के लिए एक नहीं हो सकती;
वह अलग-अलग होगी । और जो न करने वाली बातें हैं, वे सभी के लिए एक होंगी । आप पूछ सकते हैं, कौन सी न
करने वाली बातें हैं ? विवेक-विरोधी न करने वाली बात,
सामर्थ्य-विरोधी न करने वाली बात, रुचि-विरोधी
न करने वाली बात । अगर कोई करने वाली बात है और वह आपके विवेक के विरुद्ध है,
तो उसे नहीं करना चाहिए । रुचि के विरुद्ध है, तो नहीं करना चाहिये । सामर्थ्य के विरुद्ध है, तो नहीं
करना चाहिए। क्यों ? इसलिए कि आप कर नहीं पायेंगे और यदि कर
भी डालेंगे, तो आपका ह्रास होगा, ह्रास ही होगा ।
कभी-कभी विवेक-विरोधी बात रुचिकर मालूम होती है, सामर्थ्य के अनुसार भी
होती है; किन्तु उसको किसी भी प्रकार से करना नहीं है और कभी-कभी
विवेक का विरोध नहीं होता, किन्तु रुचि और सामर्थ्य का विरोध
होता है। तो विवेक का विरोध न होने पर भी, रुचि और सामर्थ्य
का विरोध होने पर आप उस बात को सर्वांश में नहीं कर पायेंगे । तो जब साधन ही सर्वांश
में सिद्ध नहीं होगा, तब सफलता मिलेगी कैसे ? इसलिये किसी भी भय से भयभीत होकर अथवा किसी भी प्रलोभन से प्रेरित होकर विवेक-विरोधी
बात को तो करना ही नहीं है । अब रही सामर्थ्य और रुचि-विरोधी बात । उसको छोड़ दें अभी,
और यह देखें कि इस समय कौन सी ऐसी बात है, जिसमें
हमारी सामर्थ्य और रुचि का समर्थन है और जो विवेक के अनुरूप है, उसे कर डालें । उसके करने से या तो भविष्य में आपकी रुचि बदल जायगी, सामर्थ्य
बढ़ जायगी या आपको सिद्धि मिल जायगी । तो यह आप कभी न सोचें कि आपको सिद्धि नहीं मिल
सकती है। सिद्धि तो आपको मिल ही सकती है, सफल तो आप हो ही सकते
हैं; परन्तु आप पर यह दायित्व है कि न करने वाली बात आप न करें
और जो करने वाली बात है वह जब रुचिकर हो सामर्थ्य के अनुरूप हो, तब उसको पूरा करें ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा
पथ' पुस्तक से, (Page No. 57-58) ।