Saturday, 7 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 07 December 2013 
(मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
असाधन-रहित साधन - 2
                   
मेरा यह निवेदन है कि मानव-सेवा-संघ किसी साधन-प्रणाली का विरोधी नहीं है, किसी भी साधन-प्रणाली का । किन्तु कोई भी एक साधन ऐसा हो नहीं सकता, जो सभी के लिये समान रूप हितकर हो । कम से कम मैं यह बात नहीं मानता; क्योंकि न करने वाली बात एक होती है, करने वाली बात अलग-अलग होती हैं । तब एक ही प्रकार की करने वाली बात पर आप सभी पर क्यों जोर डालते हैं ? इसी का तो परिणाम हुआ कि आज ईसाई तो करोड़ों देखने को मिलेंगे; किन्तु ईसा नहीं मिलेगा । क्यों, क्या ईसा का बताया हुआ साधन गलत था ? नहीं-नहीं-नहीं । वह गलत बिल्कुल नहीं था । किन्तु जिस साधन को ईसा कर सकते थे, उसे हर ईसाई नहीं कर सकता । क्यों ? दो व्यक्ति भी समान रुचि, समान योग्यता, समान परिस्थिति के नहीं हैं । आज आप स्वयं देख लीजिये । करोड़ों मुसलमान तो मिलेंगे, किन्तु मुहम्मद कितने मिलेंगे? करोड़ों बौद्ध मिलेंगे, किन्तु बुद्ध कितने मिलेंगे ? करोड़ों की संख्या में भगवान शंकराचार्य के पीछे चलने वाले मिलेंगे, लेकिन शंकराचार्य कितने मिलेंगे ? आप विचार तो करें । जिन लोगों का यह विश्वास है कि एक जैसे साधन से सभी को सिद्धि मिल सकती है, उनका यह विश्वास आज कितना भ्रमात्मक सिद्ध हो रहा है।

मेरा नम्र निवेदन था कि जो सत्य ईसा को मिला, जो सत्य मुहम्मद को मिला, जो सत्य बुद्ध को मिला, जो सत्य भगवान शंकराचार्य को मिला, जो सत्य भगवान रामानुजाचार्य को मिला, जो सत्य किसी आचार्य, पीर, पैगम्बर को मिला, वह सत्य तो आपको मिल सकता है; लेकिन जिस प्रकार से उनको मिला, उसी प्रकार से आपको भी मिल जायगा - यह बात गलत है । इस बात को स्वयं आपका जीवन सिद्ध करता है, मैं नहीं कहता हूँ । आपका जीवन ही कहता है कि आपने साधन करने में समय लगाया, शक्ति लगाई, आंशिक सफलता भी मिली; किन्तु सर्वांश में सफलता नहीं मिली । इसका एकमात्र कारण यही है कि न करने वाली बातों को करते हुये, और न करने वाली बातों के करने मात्र से सिद्धि नहीं मिलेगी । इसलिये जो नहीं करना चाहिए, उसका त्याग पहले ही करना पड़ेगा। उसके पश्चात् जो करना चाहिए, उसकी अभिव्यक्ति आपके जीवन में स्वत: होगी। और वही साधन आपका साधन होगा और उसी से आपको सिद्धि मिलेगी ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 56-57)