Friday, 6 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 06 December 2013 
(मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
असाधन-रहित साधन - 2
                   
आज का समाज स्वाधीनतापूर्वक सोच ही नहीं पाता इन नेताओं के मारे और आज का साधक शान्तिपूर्वक सोच ही नहीं पाता इन गुरुओं के मारे । अनन्त भय देंगे, अनन्त प्रलोभन देंगे, कहेंगे - ऐसा करो, ऐसा करो, ऐसा करो । अरे बाबू ! तुम क्यों परेशान हो ? तुम कुछ भी करो, जीवन-मुक्ति से बढ़िया तो ये भक्त लोग तुम्हें कुछ दे नहीं सकते । जीवन-मुक्ति से बढ़िया कुछ दे सकें, शान्ति से बढ़िया कुछ दे सकें, दु:ख-निवृति से बढ़िया कुछ दे सकें, यह तो सम्भव नहीं । फिर क्यों हाथ धोकर पीछे पड़े हो उनके? थोड़ा चैन से रहो, चैन से रहने दो । सोचो तो सही, जिस साधन को तुम सिखाने चले हो, वह साधन क्या तुम्हारे जीवन में सिद्धिदायक हो गया ? एक बात। दूसरी बात, गम्भीरता से विचार करें - तुम्हारी रुचि और जिसको तुम साधन सिखाते हो, उसकी रुचि समान है ? योग्यता समान है ? परिस्थिति समान है? आप नहीं सिद्ध कर सकते । तो फिर अपना किया हुआ साधन भी यदि आप बताते हैं, तब भी क्या आप ठीक साधन बताते हैं ? अरे, जब रुचि में, योग्यता में, सामर्थ्य में भेद है, तब जिस साधन से तुमको सिद्धि मिली, उस साधन से उसको भी सिद्धि मिलेगी - बिल्कुल गलत बात है । क्यों ? क्योंकि रुचि में, योग्यता में, सामर्थ्य में भेद है । तो बताने वाली बात क्या रह गई ? केवल एक बात, और यह कि आप उससे कहिये कि आप मानव हैं, आप साधन-निष्ठ हो सकते हैं । आप अपनी जानी हुई बुराई छोड़ दें, की हुई बुराई न दोहरावें । आप स्वत: साधननिष्ठ हो जावेंगे - इसमें सन्देह की कोई बात नहीं है ।

मेरा नम्र निवेदन था कि यदि यह बात आप साधक समाज से नहीं कहते हैं और वह भी करुणित हुए बिना कहते हैं, तो इसका भी कुछ अर्थ नहीं होगा । यदि आपका हृदय साधकों की असफलता से पीड़ित है और उस समय आप उसको केवल इतना विश्वास दिला देते हैं कि भैया ! मानव होने के नाते सिद्धि तुम्हें मिल सकती है और इसके लिये यही एक दायित्व तुम पर है कि तुम अपने जीवन में से अपनी की हुई भूल को निकाल दो, जानी हुई बुराई को मत करो । तुम्हें सिद्धि मिल जायगी । अगर आपको अपने व्यक्तित्व की पूजा करानी है, तो इतनी बात से ही आपके व्यक्तित्व की पूजा भी होगी । पूजा ही नहीं होगी, आपका जीवन स्वयं इतना ऊँचा उठ जायगा कि न चाहने पर भी समाज आपके जीवन का अनुसरण करेगा । और पराधीनताओं में, शासनों में दबा हुआ साधक आपको रोम-रोम से आशीर्वाद देगा कि हाय, मैं कितनी विवशताओं में फँसा हुआ था, कितनी पराधीनता में आबद्ध था ! आज मुझे स्वाधीनता का पथ मिला है। आपकी श्रद्धा कम नहीं हो जायगी । आपका वैभव कम नहीं हो जायगा । आपकी सेवा कम नहीं हो जायगी । किन्तु इससे साधक का कल्याण होगा ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 55-56)