Tuesday, 10 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 10 December 2013 
(मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
असाधन-रहित साधन - 3
                   
परिस्थिति आपकी दासी है, स्वामिनी नहीं । आपके देखते-देखते न जाने कितनी परिस्थितियाँ बदल गईं । अरे, जिनमें स्थिरता नहीं है, उनकी दासता आप स्वीकार करते हैं, उनसे आप हार मानकर बैठते हैं ? यह तो अपना बड़ा अपमान है । तात्पर्य यह कि किसी भी परिस्थिति में आप वह नहीं कर सकते, जो आपके जानते हुए नहीं करना चाहिये । इतनी सी बात है । इस बात को स्वीकार करना है और ऐसा मानकर कि यह हमारी ही बात है । यह किसी और की बात है, यह मानकर नहीं। क्यों ? आप किसी को कितना ही प्यार करें; पर जितना अपने को प्यार करते हैं, उतना किसी दूसरे को कर नहीं सकते और अगर आप में यह सामर्थ्य आ जाय कि आप अपने से अधिक किसी को प्यार कर सकते हैं, तो प्रभु आपकी तलाश करेगा - 'आओ भैया, आओ, मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ । मुझे वह चाहिये जो अपने से अधिक मुझे प्यार करता हो । क्या आप जानते हैं कि यह माँग किसकी है? यह माँग जगत्पति की है । वह किसके पीछे दौड़ता है ? जो उसे अपने से अधिक प्यार करता है । आप जानते हैं अपने से अधिक प्यार करने का अर्थ क्या है ? जो शान्ति में रमण न करे, जो स्वाधीनता में सन्तुष्ट न हो, जो निर्विकारिता का रस न ले । वही अपने से अधिक प्यार कर सकता है । और यह प्यार करने की सामर्थ्य उसी साधक में आती है, जिसने यह स्वीकार कर लिया है कि मुझे अपने लिये जगत् से कुछ नहीं चाहिये, अपने से भी कुछ नहीं चाहिये, प्रभु से भी कुछ नहीं चाहिये, फिर भी मुझको प्यार चाहिये । तो जिनके जीवन में प्यार की अभिव्यक्ति होती है, वे ही इस प्रकार के साधक हो सकते हैं । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि साधक होकर यदि आप अशान्ति से रहित होना चाहते हैं, दुःख से रहित होना चाहते हैं, पराधीनता से रहित होना चाहते हैं, तो शान्ति, स्वाधीनता आपको मिल नहीं सकती । मिलेगी, जरूर मिलेगी ।

यह जीवन बहुत सुन्दर जीवन है, बहुत अच्छा जीवन है । परन्तु जो लोग यह कहते हैं कि 'क्या बतायें, उन्होंने तो इतना प्यार किया कि हम मजबूर हो गये।' उनसे निवेदन है कि कोई आदमी आपको मजबूर करे, क्या वह भी कोई प्यार है ? नहीं महाराज, आज तो खा ही लो । अरे महाराज, खा ही लें । तो यह प्यार है या शासन है ? प्यार है या आसक्ति है ? निवेदन था कि हमें इस बात पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये कि आपका जीवन सफलता के लिये है और इसी परिस्थिति में आप सफल हो सकते हैं । परन्तु कब ? जब आपके जीवन में आपकी जानी हुई बुराई न रह जाय । भलाई, आपको सौ बार गरज हो, तो करें या न करें; फल की आशा न रह जाय । मुझे किसी से कुछ लेना है, यह बात न रह जाय और अपने जीवन में अपनी जानी हुई बुराई न रह जाय । तो क्या होगा? बुराई-रहित विश्राम मिलेगा । बुराई-रहित होने पर जो विश्राम आपको मिलेगा, उसी विश्राम की भूमि में योग की, बोध की, प्रेम की अभिव्यक्ति होगी । यह निर्विवाद सत्य है, जो सर्वतोमुखी विकास का मूल है ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 60-61)