Wednesday, 11 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 11 December 2013 
(मार्गशीर्ष शुक्ल नवमीं, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

जानने, मानने तथा करने का स्वरूप-विवेचन - 1

जैसा आप जानते व मानते हैं और जो करते हैं, इन तीनों में एकता रहनी चाहिये । आपका जाना हुआ, आपका माना हुआ और जो आपका किया हुआ है, उसमें भेद न हो । जाने हुये के अनुरूप करने से अकर्त्तव्य का नाश हो जाता है । और जैसा आप मानते हैं, उसके अनुसार यदि आप अपने जीवन को बना लें, तो बड़ी ही सुगमतापूर्वक आपका हृदय उसकी स्मृति से भर जाता है, जिसे आप नहीं जानते थे । आप कहेंगे कि जिसे हम जानते ही नहीं हैं, उसकी स्मृति ही कैसे हो सकती है ? इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करना है ।

एक तो होती है - अनुभूति और एक होती है - स्मृति । इन दोनों में थोड़ा भेद है । अनुभूतियाँ भोग-जनित ही होती हैं; किन्तु स्मृति उसी की होती है, जिससे आपकी जातीय एकता है, स्वरूप  की एकता है । जो आपकी आवश्यकता के रूप में है, उसी की स्मृति होती है । उसकी अनुभूति नहीं होती, क्योंकि अनुभूति 'जन्य' (जन्म लेने वाली) होती है, स्मृति 'जन्य' नहीं होती । जन्य का मतलब यह है कि जिसका जन्म होता है, स्मृति स्वत: होती है । और अनुभूति इन्द्रिय-जन्य, बुद्धि-जन्य, किसी के द्वारा होती है । जो चीज किसी के द्वारा होती है, उससे आपका नित्य सम्बन्ध या जातीय एकता नहीं होती । यही कारण है कि जाग्रत का दृश्य स्वप्न में और स्वप्न का दृश्य सुषुप्ति में नहीं रहता । सुषुप्ति की जड़ता समाधि में नहीं रहती । इसलिये भाई, देखना यह है कि आपके जीवन में स्मृति है या नहीं ? आप लोग कहते हैं कि स्मरण करो । यह जो की हुई स्मृति है, वह वास्तव में स्मृति नहीं हैं । स्मृति का अर्थ है कि जो स्वत: होती है । जैसे, जब किसी को प्यास लगती है, तब क्या वह पानी का स्मरण करता है ? वह तो स्मरण करता नहीं है, होता है । तो हमारी सबकी जो वास्तविक माँग है, उसकी स्मृति होनी चाहिये । किन्तु आज उसकी विस्मृति क्यों हो गई ? जब विस्मृति जीवन में आ जाती है, तब काम की उत्पत्ति होती है । काम, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है - विस्मृति के परिणाम में जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका नाम ही काम है, अर्थात् जब आप अपनी वास्तविक स्मृति से विमुख हो जाते हैं, तब जीवन में कामनाओं की उत्पत्ति होती है । और वे कामनायें, जो इन्द्रिय-जन्य हैं, जो बुद्धि-जन्य हैं, वस्तु आदि से आपका सम्बन्ध जोड देती हैं । परिणाम यह होता है कि वस्तु चली जाती है और सम्बन्ध रह जाता है । जिस समय वस्तु चली जाती है, और सम्बन्ध रह जाता है, उसी समय आप किसी-न-किसी प्रकार के अभाव की अनुभूति करते हैं । अभाव भी अनुभूति-जन्य है । और वस्तुएँ भी अनुभूति-जन्य हैं। और उन वस्तुओं की कामना और ममता कब उत्पन्न होती है ? जब हम वास्तविक स्मृति से विमुख होते हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 61-63)