Thursday, 12
December 2013
(मार्गशीर्ष शुक्ल दशमीं, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
जानने, मानने तथा करने का स्वरूप-विवेचन
- 1
वास्तविक स्मृति तीन रूप धारण करती है - कर्तव्य का, निज-स्वरूप का,
प्रभु का । यह स्मृति तीन ही रूप में जीवन में रहती है । कर्त्तव्य की
स्मृति हमें जगत के लिये उपयोगी बना देती है, निज-स्वरूप की स्मृति
हमें अपने लिये उपयोगी बना देती है और प्रभु की स्मृति हमें प्रभु के लिये उपयोगी बना
देती है । स्मृति की यह महिमा है। किन्तु हमारे जीवन में आज हमें जो अकर्त्तव्य दिखाई
देता है, उसका कारण है, कर्त्तव्य की विस्मृति अर्थात जो करना
चाहिये, जब हम वह नहीं करते हैं, तब वह
करने लगते हैं, जो नहीं करना चाहिए । यदि हम वह करने लगें जो
हमें करना चाहिये, तो उसका नाश अपने आप हो जाता है, जो नहीं करना चाहिये । तात्पर्य निकला कि अकर्त्तव्य के नाश में कर्त्तव्य
की स्मृति हेतु है । यदि आप कहें कि हम तो कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का भेद ही नहीं जानते
। तो ऐसी बात नहीं है । जब कभी आपके साथ कोई ऐसी बात करता है, जो नहीं करना चाहिये, तब आप स्वयं कहने लगते हैं कि साहब
! उनको ऐसा नहीं करना चाहिए ।
आप सोचिये तो सही । आप दूसरे के कर्त्तव्य को जानते हैं, फिर अपने कर्त्तव्य को
क्यों भूल जाते हैं ? आप अपने कर्त्तव्य को क्यों भूल गये जब
कि दूसरे के कर्त्तव्य को आप जानते हैं ? मेरा निवेदन तो यह है
कि जब आप अपने कर्त्तव्य को भूल जाते हैं, तभी दूसरे के कर्त्तव्य
की स्मृति आपको होती है । यदि आप अपने कर्त्तव्य को न भूलें, तो दूसरे के कर्त्तव्य को स्मरण करने का आपको अवकाश ही नहीं मिलेगा,
फुर्सत ही नहीं मिलेगी । आप कहें कि दूसरों के कर्त्तव्य को भला हम कैसे
भूल सकते हैं ? तो फिर आप यह तो बताइये कि आप अपने कर्त्तव्य
का स्मरण ही कैसे कर सकते हैं ?
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा
पथ' पुस्तक से, (Page No. 63) ।