Wednesday,
04 December 2013
(मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७०, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
असाधन-रहित साधन
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मानव-सेवा-संघ का कहना यह है कि साधन सभी सिद्धि-दायक हैं, पर जब वे असाधन-रहित हों
तब। वे तभी सिद्धि-दायक हो सकते हैं। हम आज असाधन को बनाये रख कर बड़े-बड़े साधन करते
हैं, । महाराज! हमें ऐसे उदाहरण मालूम हैं जिनको सुनकर आपको
आश्चर्य होगा । बात बहुत पुरानी नहीं है । अंग्रेजी राज्य के जमाने में जब ब्लैक मार्केटिंग
का बड़ा जोर था उस समय एक ऐसे कर्त्तव्यनिष्ठ व्यापारी थे, जिनके
यहाँ ब्लैक नहीं होता था। किसी ने मुझसे कहा कि नहीं, उनके यहाँ
भी ब्लैक हुआ था । वे मेरे मित्रों में से थे। मैंने उनसे पूछा कि लोग ऐसा-ऐसा कहते
हैं, यद्यपि मैं तो विश्वास नहीं करता हूँ। उन्होंने बड़ी ही
ईमानदारी से जबाब दिया कि लोग ठीक कहते हैं कि हमारे यहाँ ब्लैक हुआ था । मैंने पूछा,
वह कैसे हुआ ? तो उन्होंने बताया कि हमारी दुकान
का जितना कोटा था, उतना पूरा माल हमारी दुकान पर बिकता नहीं था। इसलिए हम लोगों ने विचार किया कि माल अगर मिल-ओनर (Mill-Owner) पर छोड़ देते हैं, तो वह उसे ब्लैक में बेचेगा । अगर
उसे किसी दुसरे व्यापारी को दिये देते हैं, तो वह भी ब्लैक में
बेचेगा । इसलिए हम लोगों ने विचार किया कि यह ठीक होगा कि हम स्वयं ही उसको ब्लैक में
बेचें । और माल उन्होंने ब्लैक में बेचा भी, अपनी दुकान पर नहीं,
दूसरी जगह, दूसरे नगर में और इसमें उन्हें थोड़ा-बहुत
नहीं, लाखों की तादाद में रुपया मिल गया । परन्तु आपको जानकर
आश्चर्य होगा कि यह सबका सब पूरा रुपया उन्होंने दान में दे दिया - स्कूल आदि खुलवा
दिये । अपने परिवार के ऊपर उसमें से एक पैसा भी खर्च नहीं किया। आप कहेंगे कि उन्होंने
यह तो बड़ा अच्छा किया । लेकिन जरा सोचिये तो सही, महत्त्व चरित्र
का रहा कि अर्थ का ? गम्भीरता से सोचिये - अर्थ ने चरित्र पर
विजय प्राप्त कर ली ।
उपस्थित लोभ से तो अपनी रक्षा कर ली, लेकिन किये हुये पुण्य कर्म से
कीर्ति मिलेगी, किये हुए पुण्य कर्म का फल मिलेगा । इससे ऊपर
तो वे अपने को नहीं रख सके । मेरा निवेदन केवल यह था कि हम आज यह सोच ही नहीं पाते
कि चरित्र का महत्त्व क्या है और वस्तु का महत्त्व क्या है ? वस्तुओं के लिये हम आज अपने चरित्र की ओर नहीं देखते, पद के लिये हम अपने चरित्र की ओर नहीं देखते, कामना-पूर्ति
के लिए हम अपने चरित्र की ओर नहीं देखते । उसी का यह परिणाम होता है कि एक ओर तो हम
बड़ी अच्छी-अच्छी बातें करते हैं; परन्तु यह बड़ा कठिन है कि लाखों
रुपया मिल जाय और उस सबको दान में देकर प्राप्त होने वाले कीर्ति, यश, सम्मान, आदि के लालच से हम
अपनी रक्षा कर सकें। क्या यह सिद्ध नहीं करता कि हम जीवन में अपने चरित्र की बलि चढ़ाकर
अर्थ की उपासना में रत रहते हैं ? इसलिये मेरा नम्र निवेदन है
कि आप साधन तो बड़े-बड़े करते हैं, जप-तप करने में भी कोई कसर नहीं
रखते और ये सभी साधन सिद्धिदायक भी हैं, इसमें मुझे लेशमात्र
भी संदेह नहीं है । परन्तु उस साधन के साथ-साथ असाधन क्यों है जीवन में ? इस पर भी तो विचार कीजिये, मेरे भाई! इसीलिए साधकों
के जीवन में आज असफलता दिखाई देती है । अत: मेरा निवेदन है कि आप अल्प-से-अल्प साधन
करें, किन्तु असाधन-रहित होकर करें ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा
पथ' पुस्तक से, (Page No. 51-52) ।