Tuesday, 3 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 03 December 2013 
(मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

असाधन-रहित साधन - 1
                   
प्राकृतिक नियमानुसार सर्वांश में दो व्यक्ति भी समान नहीं हैं । रुचि में भेद, योग्यता में भेद, सामर्थ्य में भेद; परन्तु माँग मानव-मात्र की एक है । जिस प्रकार भूख एक है, किन्तु भोजन सबका अलग-अलग है; उसी प्रकार मानव-मात्र की वास्तविक माँग एक है । किन्तु रुचि-भेद से, योग्यता-भेद से, सामर्थ्य-भेद से उस माँग का क्रियात्मक साधन अलग-अलग हैं। विचार इस बात पर करना है कि जब क्रियात्मक साधन अलग-अलग हैं और माँग एक है, तो यह अलग-अलग जो साधन हैं, वह जीवन में कैसे अवतरित हों ? इस पर विचार करने से ऐसा मालूम होता है कि यदि हम लोग अपने-अपने जीवन में से अपने-अपने जाने हुए दोषों का त्याग कर दें, की हुई भूल को न दोहरायें, अर्थात् जो न करने वाली बातें हैं, उनको करना छोड़ दें, तो करने वाली बातें प्रत्येक भाई-बहिन के जीवन में जो अलग-अलग हैं, वे स्वत: होने लगती हैं । आज हमसे भूल यह होती है कि हम अपनी रुचि का अध्ययन किये बिना, योग्यता का अध्ययन किये बिना, सामर्थ्य का अध्ययन किये बिना साधन करने लगते हैं और बलपूर्वक साधन करने लगते हैं । यद्यपि कोई भी साधन गलत नहीं है, परन्तु देखना यह है कि जो विध्यात्मक साधन हमने करना आरम्भ किया है, क्या वह हमें रुचिकर है ? क्या उसके सम्बन्ध में हमें कोई सन्देह नहीं है ? क्या वह हमारी सामर्थ्य के अनुरूप है ? तो जो साधन रुचि के, सामर्थ्य के अनुरूप होता है, जिसमें साधक को सन्देह नहीं होता, उस साधन में और जीवन में गहरी एकता हो जाती है । रुचिकर होने से मन लग जाता है, सन्देह-रहित होने से बुद्धि लग जाती है, और सामर्थ्य के अनुरूप होने से हमारी सारी शक्तियाँ उसमें लग जाती हैं। इसका अर्थ है कि जिसमें आपकी सारी योग्यता लग जाय, सारी सामर्थ्य लग जाय, वह साधन और आपका जीवन एक हो जाय । इसी का नाम तो साधन है ।

आज का साधक कहता है - 'क्या बतायें, करना तो चाहते हैं, पर उसमें मन ही नहीं लगता ।' यह प्रश्न इस बात को सिद्ध करता है कि जो साधन करना आपने आरम्भ किया है, उसमें आपने अपनी रुचि, सामर्थ्य, योग्यता का अध्ययन नहीं किया । उस साधन में और आपकी रुचि में कोई भेद है, उस साधन में और आपकी सामर्थ्य में कोई भेद है, उस साधन में और आपकी योग्यता में कोई भेद है। इसीलिये आपके सामने यह परिस्थिति है कि जो बात आप करना चाहते हैं, उसे कर नहीं पाते ।

साधन कठिन नहीं है । साधन सहज है । साधन का अर्थ क्या है ? जिसे आप कर सकें । और जिसे आप कर सकते हैं, वह कठिन हो ही नहीं सकता । और अगर आप अपने को थोड़ा भी बचाते हैं, तो कर नहीं सकते । पूरी शक्ति लगाने पर जो बात की जा सकती है, उसी का नाम साधन है । अब आप विचार करें कि जब पूरी शक्ति लगाकर जो बात की जा सकती है और उसी का नाम साधन है, तो फिर साधन करने में प्रत्येक भाई स्वाधीन है या नहीं ? प्रत्येक बहिन स्वाधीन है या नहीं ? क्यों ? अरे भाई ! आपके पास जो शक्ति है उसे लगा दो । आप साधन कर सकेंगे, सिद्धि आपको मिलेगी । किन्तु आपको जो सिद्धि नहीं मिलती है, उसका कारण यह है कि हम अपनी पूरी शक्ति लगा कर साधन नहीं करते और पूरी शक्ति लगाकर साधन इसलिये नहीं करते कि जो साधन करना हमने आरम्भ किया है, वह हमें रुचिकर नहीं है, उसके सम्बन्ध में हम सन्देह-रहित नहीं हैं, वह हमारी सामर्थ्य के अनुरूप नहीं है । इसी कारण हम पूरी शक्ति नहीं लगा पाते ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 49-51)