Sunday 15 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 15 December 2013 
(मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
जानने, मानने तथा करने का स्वरूप-विवेचन - 2

शरीर के सहयोग से आप निर्मम नहीं हो सकते, शरीर के सहयोग से आप निष्काम नहीं हो सकते, असंग नहीं हो सकते, शरणागत नहीं हो सकते । किन्तु अपने द्वारा आप निर्मम हो सकते हैं । आप कहेंगे, फिर होते क्यों नहीं ? हो सकते हैं, और क्यों नहीं होते ? यह असमर्थता की दशा है, यह वास्तविकता नहीं है । आपने अपने को असमर्थ बना लिया है, इसलिए आप कहते हैं कि हम वैसे क्यों नहीं होते, जैसे हो सकते हैं ।

अब सोचिये कि यह असमर्थता कैसे दूर हो ? इसका बड़ा सहज उप।य है। पहले यह सोचो कि तुम्हारे जानते, तुम्हें क्या नहीं करना चाहिए ? यह मत विचार करो कि क्या करना चाहिए । तुमको अपने द्वारा इस बात का ठीक निर्णय कर लेना चाहिए कि हमें मिले हुए बल का दुरुपयोग नहीं करना है, पहली बात । दूसरी बात, यह कि जो नहीं कर सकते, उसको भी नहीं करना है । कहीं इसका यह अर्थ मत लगा लेना कि हम कुछ भी नहीं कर सकते । जो कुछ नहीं कर सकता, उसका जीवन तो बहुत ऊँचा हो जाता है । किन्तु आप कुछ तो कर ही सकते हैं । जैसे - बल का दुरुपयोग आप न करें, ऐसा आप कर सकते हैं, और जो नहीं कर सकते, यानी सामर्थ्य-विरोधी है, उसका भी त्याग करें । इतना तो, ऐसा कोई नहीं, जो न कर सके । देखिये, कोई भी ईमानदार भाई और बहिन अपने हृदय पर हाथ रख कर यह नहीं कह सकते कि मैं कोई ऐसी बात कहता हूँ जो असम्भव है । भाई, जो नहीं कर सकते, उसे मत करो । और मिले हुए बल का दुरुपयोग मत करो, चाहे तन का बल हो, चाहे धन का बल हो, चाहे योग्यता का बल हो, चाहे पद का बल हो और, आजकल के युग में, चाहे बहु-संख्या का बल हो। किसी भी प्रकार के बल का दुरुपयोग मत करो । अच्छा, मैं आपसे पूछता हूँ कि मानव-समाज यदि बल का दुरुपयोग न करने का निर्णय कर ले, तो क्या पुलिस अपेक्षित होगी भाई ? बोलो ! पुलिस की जरूरत होगी, फौज की जरूरत होगी? न्यायालय की जरूरत होगी ! अच्छा, जिस समाज को फौज की जरूरत नहीं रही, पुलिस की जरूरत नहीं रही, न्यायपालिका की जरूरत नहीं रही, उस समाज में परस्पर स्नेह होगा कि नहीं, विश्वास होगा कि नहीं, एकता होगी कि नहीं ?

क्या पुलिस के बल पर, फौज के बल पर, न्यायालय  के बल पर आज तक दो वर्गों में, दो देशों में, दो मजहबों में, दो इज्मों में क्या वह विश्वास, वह प्रेम हुआ कि जो होना चाहिए ? नहीं हुआ । फिर राष्ट्रीयता का अभिमान क्या अपने आपको धोखा देना नहीं है ? मानव-सेवा-संघ ने कहा कि हे मानव ! तू किसकी ओर देखता है ? तू भूल गया कि बल का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए । और जो नहीं कर सकते हैं, उसको नहीं करना चाहिए, यह भूल गया और उस भूल का यह परिणाम हुआ कि कर्त्तव्य की विस्मृति हो गई, अकर्त्तव्य की उत्पत्ति हो गई। अकर्त्तव्य की उत्पत्ति का परिणाम हुआ कि दो व्यक्तियों में, दो वर्गों में, दो देशों में, दो दलों में, दो मजहबों मे, दो इज्मों में संघर्ष हो गया, और यह कहते-कहते संघर्ष हो गया – ‘हम मानव-समाज के हित-चिन्तक हैं’ । और परस्पर में संघर्ष भी है । जरा विचार तो कीजिए । आप हित-चिन्तक भी हैं, और संघर्ष भी करते हैं। आप हित-चिन्तक हैं और अरबों-खरबों की सम्पत्ति अनिष्टकारी आविष्कारों में व्यय करते हैं । यह अपने को धोखा देना है । यह धोखा कब नाश होता है, आप जानते हैं ? यह धोखा तब नाश होता है, जब मानव अपना नेता, अपना शासक, अपना गुरा स्वयं आप बनता है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 66-67)