Saturday, 14
December 2013
(मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी वि.सं.-२०७०, शनिवार)
जानने, मानने तथा करने का स्वरूप-विवेचन
- 2
आज मानव-मात्र के सामने यह मौलिक प्रश्न उपस्थित है कि हमारे जीवन में
अकर्त्तव्य की उत्पत्ति क्यों हो गई ? अर्थात् हम वह क्यों कर बैठते हैं,
जो हमें नहीं करना चाहिए? अथवा हम वह क्यों नहीं
करते, जो करना चाहिए ? कहना पड़ेगा कि असमर्थता
से, हम असमर्थ हो गये, इसलिए । अब विचारणीय
प्रश्न यह है कि हम असमर्थ क्यों हो गये ? तो मानना पड़ता है कि
हमने शान्ति का सम्पादन नहीं किया । असमर्थता का अन्य कोई कारण नहीं है । एक दिन मानव-समाज
इस तर्क पर बहुत ही गम्भीरता से विचार करेगा । तात्पर्य यह कि असमर्थता भूल-जनित दोष
है प्राकृतिक नहीं । जो दोष भूल-जनित है, उसी की निवृत्ति होती
है । आप कहेंगे, असमर्थता का अर्थ क्या है ? असमर्थता का अर्थ केवल इतना ही है कि जो हमें करना चाहिए, वह नहीं किया और जो नहीं करना चाहिए, वह कर बैठे,
यही असमर्थता है । जो हमें मिलना चाहिए वह नहीं मिला, यह असमर्थता है । जिसमें हमारा चित्त लगना चाहिए उसमें नहीं लगा - यह असमर्थता
है । जिससे हमारा चित्त हटना चाहिए, उससे नहीं हटा - यह असमर्थता
है । कहना होगा कि हमने शान्ति का सम्पादन नहीं किया और इसी कारण हम असमर्थ हो गये
।
सोचिये,
शान्ति का सम्पादन कैसे होगा ? 'स्व' के
द्वारा होगा, 'पर' के द्वारा नहीं होगा ।
आप कहेंगे कि इसके लिए हमें क्या करना होगा ? अपने द्वारा कब
हम शान्त होंगे ? बोले, आपको निर्मम होना
होगा, आपको निष्काम होना होगा, आपको असंग
होना होगा आपको शरणागत होना होगा । निर्ममता, निष्कामता,
असंगता और शरणागति, इन चारों बातों में शरीर-धर्म
नहीं है। गम्भीरता से विचार करें । यह मानव का अपना स्वधर्म है, शरीर-धर्म नहीं है
।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा
पथ' पुस्तक से, (Page No. 65) ।