Sunday, 1 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 01 December 2013 
(मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सत्संग एवं श्रम-रहित साधन की महत्ता - 3
                   
अब अविनाशी जीवन कैसा है? इसके जानने से पूर्व जो चीज अविनाशी नहीं है, उसको जानें । जैसे, दो चीजें यदि आपके सामने रख दी जायें और उनमें से यदि एक को आप जानते हैं, तो दूसरी चीज का यह ज्ञान आपको अपने आप हो जायगा कि यह उसकी जाति की नहीं । तो, जो अविनाशी जीवन में आस्था तो करते हैं, परन्तु अविनाशी जीवन को जानते नहीं, उन्हें यह देखना चाहिये कि जो जीवन अविनाशी नहीं है, वह क्या है ? इस प्रकार आपको स्वत: इस बात का अनुभव हो जायगा कि उत्पन्न हुई वस्तुओं का जो सम्बन्ध है, यानी उनसे जो ममता है, उनसे जो तादात्म्य है, उनकी जो कामना है, यह सब उस जीवन के साथ है, जो अविनाशी नहीं है । बताइये, कौन भाई इस बात को नहीं जानता ? तो उत्पन्न हुई वस्तु क्या है ? यही न कि जिसे आप देखते हैं । एक बात । उत्पन्न हुई वस्तु क्या है ? जिसके विषय में आपको ऐसा मालूम होता है कि वह हमारे पास है। तो, जो चीज आपको मिली हुई है, उसी का नाम है - 'उत्पन्न हुई वस्तु'। सोचिये कि उसकी ममता, उसकी कामना, उसका तादात्म्य यह किसका संग हुआ? यह उसका राग हुआ, जो अविनाशी नहीं है । आप मिली हुई वस्तु आदि की ममता छोड़ दें - वस्तु न छोड़ दें । मैं यह बात नहीं कहता कि आप मुझको दे दें, गंगा में फेंक दें; लेकिन इस बात को आप अनुभव करें - मानें नहीं, श्रद्धा न करें, इस बात पर विश्वास न करें - अनुभव करें कि जिस वाणी से मैं बोलता हूँ, क्या यह मेरी है? अगर मेरी है, तो अपने से पूछें कि उस पर कितने दिन मेरा अधिकार रहेगा? तुरन्त उत्तर मिलेगा । महाराज ! आप स्वयं कहेंगे कि एक घड़ी वह आयेगी और यह सम्भव है कि बोलने की रुचि तो रह जाय, किन्तु बोलने की शक्ति चली जाय। जीवन की यह घड़ी बड़ी भयंकर घड़ी है ।

मुझसे अगर कोई पूछे कि जीवन का सबसे काला समय कौन सा है ? तो मैं कहूँगा - जब मैं बोलना चाहूँ पर बोल न सकूँ, देखना चाहूँ पर देख न सकूँ, सुनना चाहूँ पर सुन न सकूँ, सोचना चाहूँ पर सोच न सकूँ, करना चाहूँ पर कर न सकूँ । यही जीवन की सबसे भयंकर घड़ी है । अत: इस घड़ी के आने के पूर्व, बोलने के अन्त में, न बोलने में जो जीवन है, देखने के अन्त में न देखने में जो जीवन है, श्रवण के अन्त में न सुनने में जो जीवन है, सोचने के अन्त में न सोचने में जो जीवन है, यदि उस जीवन को आपने प्राप्त कर लिया, यदि उस जीवन के साथ आपकी एकता हो गई, उस जीवन में यदि आपकी आस्था हो गई, उस जीवन के प्रति यदि आप में माँग जाग्रत हो गई, तो आप निस्सन्देह उसी जीवन को पायेंगे, जो आज तक किसी ऋषि को मिला हो, मुनि को मिला हो, पीर को मिला हो, पैगम्बर को मिला हो; किसी मजहब के भाई को मिला हो, किसी इज्म के भाई-बहिन को मिला हो । यानी, वह जीवन जो बड़े से बड़े मानव को मिला है, आपको भी मिलेगा ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 46-48)