Saturday 30 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 30 November 2013 
(मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

सत्संग एवं श्रम-रहित साधन की महत्ता - 3
                   
अब आप विचार करें कि मानव-जीवन और सत्संग - इन दोनों में कितना घनिष्ट सम्बन्ध है । हमारे एक भाई आज बहुत बिगड़ रहे थे। मैंने पूछा, बताओ तो भाई, क्या अपराध मुझसे हो गया ? मैंने आपसे निवेदन किया कि मेरे समान पराधीन आपको कोई दूसरा नहीं मिलेगा । हर आदमी का मुझ पर अधिकार है कि मुझको डाँटे । मुझ पर सभी का यह अधिकार है । ऐसा मेरा जीवन है, यह मेरा दुःख नहीं है। कहते हैं - 'देखिये, आप सत्संग-समारोह करते हैं और उस पर इतना खर्चा। आपको सत्संग-समारोह बहुत ही सादगी के साथ करना चाहिए । नहीं, तो और कोई हिम्मत नहीं करेगा, उत्साहित नहीं होगा ।' मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इतने खर्चे के बाद अगर एक भी भाई के जीवन में, एक भी बहिन के जीवन में जीवन की माँग जाग्रत हो जाय, तो उस पर सारे विश्व की सम्पत्ति निछावर कर देना भी कम है । आपने सत्संग का महत्त्व नहीं समझा, नहीं समझा ! सत्संग के लिए हँसते-हँसते प्राण दिये जा सकते हैं । सत्संग के लिए क्या नहीं दिया जा सकता ? सब कुछ दिया जा सकता है ।

इसलिये भाई मेरे, सत्संग का मूल्य चुकाने के लिए मैं सत्संग का ऋणी हूँ । सच कहता हूँ, मैं सत्संग के बदले में कुछ भी नहीं कर सका । इसलिये मेरा निवेदन है कि आप यह सोचें कि सत्संग जीवन की कितनी आवश्यक वस्तु है। अगर आपके जीवन में सफलता होगी, तो सत्संग से ही होगी । अगर जीवन में असफलता है, तो वह असत् के संग से है । इसलिए मेरे भाई ! प्रत्येक कार्य के आदि और अन्त में सत् का संग सुरक्षित रहे, इसके लिए आप अथक प्रयत्नशील बने रहें । सफलता अनिवार्य है । परन्तु अधीर नहीं होना है, घबड़ाना नहीं है, वरन् बड़े ही धीरज के साथ इस बात पर विचार करना है कि अब हम सत्संग के बिना किसी भी प्रकार नहीं रहेंगे । देखिये, सत्संग के जो सहयोगी अंग हैं, जो उपाय हैं, जो प्रकार हैं - यद्यपि वास्तविक सत्संग का एक ही प्रकार है, और वह है - जो 'है' उसका संग । संग किस प्रकार होता है ? इस पर थोड़ा विचार कीजिये । आस्था से संग होता है, अभित्रता से संग होता है और आत्मीयता से संग होता है । जैसे अविनाशी जीवन है, आप नहीं जानते कि वह कैसा है, और कहाँ है। पर केवल आप इतना स्वीकार करें कि 'अविनाशी जीवन है ।‘ यहीं से सत्संग आरम्भ हो गया ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 45-46)