Friday 29 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 29 November 2013 
(मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सत्संग एवं श्रम-रहित साधन की महत्ता - 2
                   
मेरा नम्र निवेदन है कि सत्संग श्रम-रहित जीवन में स्वत: सिद्ध है। आवश्यक कार्य पूरा करने पर, अनावश्यक कार्य का त्याग करने पर श्रम-रहित जीवन का अनुभव स्वत: होता है - कर्त्तव्य-पथ । विवेकपूर्वक अचाह, अप्रयत्न, निर्मम, निष्काम होने पर स्वत: सत् का संग होता है - विचार पथ । और अविचल आस्था, श्रद्धा, विश्वासपूर्वक शरणागत होने पर स्वत: सत् का संग होता है - विश्वास-पथ! आप किसी भी पथ के साधक हों, इसमें कोई भी अन्तर नहीं पड़ता है । सत्संग की दृष्टि से ईश्वरवादी, अनीश्वरवादी, भौतिकवादी अध्यात्मवादी, किसी मजहब का, किसी इल्म का, किसी देश का, किसी वर्ग का भाई हो, बहिन हो, कोई भी हो, मनुष्य होने के नाते वह सत्संग का जन्मजात अधिकारी है, और जो सत्संग का अधिकारी है, उसके जीवन में असाधन का नाश, साधन की अभिव्यक्ति स्वत: होगी । जब साधन की अभिव्यक्ति होगी, तब साधन और जीवन में एकता हो जायगी । साधन और जीवन की एकता होने पर हम सब, चाहे जिस परिस्थिति में हों, कृतकृत्य हो जायेंगे । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये मानव-सेवा-संघ का प्रादुर्भाव हुआ है । मेरा नम्र निवेदन यह था कि सत्संग के बिना आप न रह सकें । भूखे रह जायँ, नंगे रह जायँ, बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को सह लें, पर सत्संग के बिना न रहें । यह बात तभी सम्भव होगी, जब आप इस बात को स्वीकार करें कि मानव-जीवन के पुरुषार्थ की परावधि एक-मात्र सत्संग में है। आप जानते हैं कि सत्संग से क्या मिलता है ? सत्संग से चार बातें जीवन में आ जाती हैं । आज प्रात: काल का प्रस्तावित विषय था - उदारता । जिसको सत्संग प्राप्त है, उसके जीवन में उदारता आ जाती है, उसे उदार बनना नहीं पड़ता, प्रयत्न नहीं करना पड़ता । बोलो ! उदारता का अर्थ क्या है ? उदारता का अर्थ है कि जिसका हृदय दुखियों को देख करुणित हो जाय, सुखियों को देख प्रसन्न हो जाय। उसे सोचना नहीं पड़ता, उसे इस बात का अभ्यास नहीं करना पड़ता कि मेरा ऐसा काम हुआ कि नहीं हुआ । क्यों ? सत्संग होने से सर्वात्मभाव की अभिव्यक्ति होती है । सत्संग होने से विश्व के साथ एकता का बोध हो जाता है । आप जानते हैं कि जो अपना है और सुखी है, क्या उसे देखकर प्रसन्नता नहीं होगी ? जो अपना है और दुखी है, उसे देख करुणा नहीं जाग्रत होगी ? यह है मानव-सेवा-संघ की सेवा । इसमें क्या है ? इसमें रस है, सुख नहीं है । रस में और सुख में एक बड़ा भेद है । रस उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है, कभी घटता नहीं और सुख उत्तरोत्तर घटता रहता है, कभी बढ़ता नहीं । सुख उत्तरोत्तर घटता रहता है, रहता नहीं, और रस उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है, कभी मिटता नहीं । आप कहेंगे कि बस ! दूसरी बात क्या मिलती है ? परम शान्ति । परम शान्ति में भी रस है । जिस प्रकार उदारता में रस है उसी प्रकार परम शान्ति में भी रस है । और तीसरी चीज क्या मिलती है ? स्वाधीनता । स्वाधीनता में भी रस है और चौथी चीज क्या मिलती है ? प्रेम की प्राप्ति, इसमें भी रस है । इस प्रकार मानव का जीवन रस से परिपूर्ण हो जाता है ।
                                                                                                       
आप बड़े से बड़े विज्ञानवेत्ताओं से, मनोविज्ञान वेत्ताओं से पूछें और उनसे कुछ न कहें कि हमारे जीवन में काम आदि विकारों की उत्पत्ति क्यों होती है? अगर ठीक मनोविज्ञान का ज्ञाता है, तो उसे ईमानदारी से कहना पड़ेगा कि नीरसता के बिना काम की उत्पत्ति नहीं होती । काम की उत्पत्ति के बिना दोषों की उत्पत्ति नहीं होती । इस प्रकार दोषों का मूल कारण निकला नीरसता। और रस कहाँ है ? उदारता में । रस कहाँ है ? शान्ति में । रस कहाँ है? स्वाधीनता में । रस कहाँ है ? प्रेम में । उदारता कहाँ है ? सत् के संग में । परम शान्ति कहाँ है ? सत् के रस में । स्वाधीनता कहाँ है ? सत् के संग में । प्रेम कहाँ है? सत् के राग में ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 43-45)