Thursday, 28 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 28 November 2013 
(मार्गशीर्ष कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

सत्संग एवं श्रम-रहित साधन की महत्ता - 2
                   
बड़े दुःख के साथ मुझे यह कहना पड़ता है कि आज का साधक ऐसा कहता है कि 'मैं साधन करता हूँ और असाधन होता है ।' जरा सोचिये तो सही, असाधन माने क्या ? यही न कि जिसकी उत्पत्ति असत् के राग से हुई हो । तो वह तो, आप कहते हैं कि होता है और साधन आप करते हैं । किये हुये का अन्त स्वाभाविक रूप से अपने आप हो जाता है । अत: इस द्वन्दात्मक स्थिति में साधन करने का अभिमान और असाधन की वेदना में फँसे हुये साधक को देखकर मुझे बड़ी पीड़ा होती है । और ऐसा लगता है कि हाय-हाय ! साधनयुक्त मानव-जीवन आज किस दुर्दशा में पड़ा है !

मेरा नम्र निवेदन है कि मानव-जीवन का एकमात्र पुरुषार्थ स्वत: होने वाले सत्संग को सुरक्षित रखने में है, और किसी बात में नहीं है । यही है, आपका पुरुषार्थ । और कर्त्तव्य-कर्म जो है, वह मिले हुये के सदुपयोग में है । यह है, आपका पुरुषार्थ ! मेरा निवेदन है कि जाग्रत-सुषुप्ति को प्राप्त किये बिना आप जीवन से वंचित हैं । कारण कि, यह वर्तमान जीवन की माँग है, यह वर्तमान की बात है । यह धीरे-धीरे होने वाली बात नहीं है, यह कालान्तर में होने वाली बात नहीं है । इसी आधार पर मैं यह मानता हूँ कि अल्प-से-अल्प काल में भी मानव सिद्धि प्राप्त कर सकता है । क्यों ? सिद्धि का हेतु एकमात्र सत्संग है और सत्संग वर्तमान में सिद्ध हो सकता है । इसी दृष्टि से मैं पूछता हूँ कि आज का साधक-समाज अपनी असफलता से पीड़ित क्यों नहीं है ? आप कैसे चैन से जीते हैं? आप कैसे चैन से सोते हैं ? आप कैसे चैन से खाते हैं ? असाधन के साथ-साथ साधन के आधार पर । मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यही इसका कारण है। कोई भी भाई, कोई भी बहिन, सर्वांश में असाधनयुक्त नहीं हैं, जो साधन करते हैं वे और जो साधन नहीं करते हैं वे भी । सभी भाई, सभी बहिनों के जीवन में असाधन आंशिक ही है । सर्वांश में असाधन, सर्वांश में अकर्त्तव्य, सर्वांश में आसक्ति किसी भाई में नहीं, किसी बहिन में नहीं । और जो लोग शिक्षित भी हैं, दीक्षित भी हैं, वे मुझे क्षमा करें । मेरी भाषा कटु हो जाती है कभी-कभी। इसलिये मैं डरता हूँ कि आपका दिल न दुःख जाय । शिक्षा भी है, दीक्षा भी है और चाट गये साधुओं के चरणों को, चाट गये पुस्तकालय के पुस्तकालय । और कहाँ तक बताऊँ, इससे आगे की अपनी व्यथा, अपना दुःख । यही मेरा दुःख है। अजी जनाब ! उपनिषदों और वेदान्त पर टीकायें कर डालीं और फिर भी दशा यह है कि ममता नाश नहीं हुई, कामना नाश नहीं हुई । और बुद्धिमानी ? यह कि बात समझ में तो आती है, ठीक भी है, पर जीवन में नहीं उतरती । मैं नहीं सोच पाता कि इस दुःखद दशा में आप चैन से कैसे जीते हैं ? क्या आप नहीं सोचते कि सत्य क्या देश-काल की दूरी पर है ? क्या सत्य कालान्तर में प्राप्त होता है ? जो सत्य वर्तमान जीवन की वस्तु है, आप आज उसके बिना चैन से रहते हैं और लेबिल लगा हुआ है कि हम साधक हैं। हम 20 वर्ष से सत्संग करते हैं, हम 30 वर्ष से सत्संग करते हैं, हम 50 वर्ष से सत्संग करते हैं । इस सब दुर्दशा को देखकर मेरा हृदय फटता है । मुझे बड़ी व्यथा होती है । मैं इस दुर्दशा को मानव-जीवन का अपमान मानता हूँ कलंक मानता हूँ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 42-43)