Wednesday,
27 November 2013
(मार्गशीर्ष कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७०, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
सत्संग एवं
श्रम-रहित साधन की महत्ता - 1
अब आप विचार करें वर्तमान कर्त्तव्य-कर्म पर, जिसके लिये शरीर की अपेक्षा,
योग्यता की अपेक्षा, सामर्थ्य की अपेक्षा आपको
है । वह वर्तमान कर्त्तव्य-कर्म सत्संग में बाधक नहीं है । आप कितने ही कर्मठ क्यों
न हों, 24 घण्टे में 18 घण्टे काम करें,
10 घण्टे काम करें । मैं ऐसे साधकों को जानता हूँ, जिनके सम्बन्ध में
मैंने सुना है कि वे केवल 2 घण्टे आराम करते हैं और 22 घण्टे काम करते हैं । जो भी हो, काम कितना ही अधिक आपके
सामने हो; किन्तु वह वर्तमान का कर्त्तव्य-कर्म हो और उस कर्म
के फल में आपकी आसक्ति न हो, उस किये हुये कर्म का अभिमान न हो,
करने की आसक्ति न हो । इस विधान के अनुसार आप चाहे जितना कार्य करें,
कार्य के अन्त में आपको सत् का संग, अविनाशी का
रस, 'है' का राग स्वत: हो जायगा । किन्तु
यदि आप कार्य का फल चाहते हैं, तो सत् का संग होने पर भी आपको
शक्ति मिलेगी । इसमें कोई संदेह नहीं । परन्तु आपकी निष्ठा 'सत्'
में नहीं होगी, आपकी प्रियता 'सत्' में नहीं होगी । तब यह होगा कि जो शक्ति आपको मिलेगी, फिर उसको आप श्रम-युक्त जीवन में व्यय कर देंगे । कैसे ? जो शक्ति मिलेगी, उसको व्यय करके आप फिर असमर्थता में
आबद्ध होंगे ।
इस विपत्ति से बचने के लिये प्रत्येक भाई-बहिन के लिये यह अनिवार्य है
कि आवश्यक कार्य के अन्त में, उससे श्रम-रहित होकर सत् का संग करना चाहिये,
चाहे यों कहो । चाहे यह कहो कि सत् का संग सुरक्षित रहना चाहिये। क्यों
? यह इसलिये कि इसी सत् के संग से जिज्ञासा-पूर्ति के लिये विचार
का उदय होगा ? कर्त्तव्य-पालन के लिये सामर्थ्य की अभिव्यक्ति
होगी और प्रभु से मिलने के लिये विरह की जागृति होगी । देखिये, भजन किसी अभ्यास का नाम है - ऐसा, कम से कम मैं व्यक्तिगत
रूप से बिल्कुल नहीं मानता हूँ । भजन का अर्थ क्या है ? भजन के
दो भाग हैं - एक भाग है - सेवा और दूसरा प्रियता । सेवा प्रवृत्ति-काल में और प्रियता
निवृत्ति-काल में । इसका नाम है, भजन । तो यह जो भजन है,
यह सत्संग से स्वत: होता है । मुझे तो इस बात में बिल्कुल भी सन्देह
नहीं है । किन्तु मैं इस बात को आपके सामने इस रूप में नहीं कहना चाहता कि आप इसको
मान ही लें । मुझे अपनी ईमानदारी पर पूरा विश्वास है । मैं प्रमाण नहीं देता । नहीं
तो, अनेक प्रमाण दे सकता हूँ । इस सम्बन्ध में मेरा निवेदन केवल
इतना ही था कि अगर आपको भजन सचमुच अभीष्ट है, तो भी सत्संग चाहिये
और यदि साधन अभीष्ट है, तो भी सत्संग चाहिये ।
आप जानते ही हैं कि साधन किसे कहते हैं । असाधन-रहित होने पर जब परम शान्ति
की, स्वाधीनता की, अमरत्व की, चिन्मय-जीवन
की अभिव्यक्ति होती है, उसी को साधन कहते हैं । साधन और जीवन
में विभाजन नहीं हो सकता।
- ‘प्रेरणा
पथ' पुस्तक से, (Page No. 40-42) ।