Tuesday 26 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 26 November 2013 
(मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सत्संग एवं श्रम-रहित साधन की महत्ता - 1
                   
मुझ जैसा पराधीन व्यक्ति कोई नहीं मिलेगा । मेरे ऊपर बहुत से 'आर्डीनेन्स’ लगे हुए हैं - इतना बोलो, इतना मत बोलो, इतना खाओ, इतना लेटो आदि-आदि । मैं यह निवेदन कर रहा था कि 'जाग्रत-सुषुप्ति’ का नाम ही 'मूक सत्संग’ है । और यदि मैं यह कह दूँ कि इसी का नाम 'सत्संग' है, तो कोई अत्युक्ति की बात नहीं होगी । कोई भाई बिगड़ न जायँ, मेरी वाणी जरा कटु है । आज की दुनियाँ में साधक-समाज में आप जानते हैं, क्या हो रहा है? सत् की चर्चा को सत् का संग कहने लगे हैं । अगर कोई पोथी पढ़ रहा है, तो सत्संग, कोई साधन कर रहा है, तो सत्संग । अगर कोई व्याख्यान दे रहा है, तो सत्संग । यह आज की प्रचलित प्रथा है ।

मेरा निवेदन है कि यह सब सत्संग नहीं है । 'सत्संग' का अर्थ है, सत् का संग, अविनाशी का संग, नित्य-प्राप्त का संग । मिले हुये की ममता का नाम सत्संग नहीं है । अप्राप्त की कामना का नाम सत्संग नहीं है । किसी इन्द्रिय-जन्य, बुद्धि-जन्य श्रम का नाम सत्संग नहीं है । सत्संग का अर्थ ही है कि 'है' का संग । और 'है' का संग होता है तब, जब जाग्रत-सुषुप्ति हो । जाग्रत-सुषुप्ति कब होती है? वह तब होती है, जब आप आवश्यक कार्य को पूरा करने के पश्चात्, अनावश्यक कार्य का त्याग करने के पश्चात्, अल्प काल के लिये, काम-रहित होते हैं, श्रम-रहित होते हैं, तब । उस समय 'है' का राग होता है । इससे क्या सिद्ध हुआ ? हमें सत् का राग करना नहीं है, वह तो होगा । यहाँ एक और सूक्ष्म बात है और वह यह कि सत् का संग होगा तभी, जब सत्संग की अभिरुचि, सत्संग की उत्कट लालसा जीवन में हो । सत् के संग के बिना 'मैं' एक क्षण भी चैन से नहीं रह सकता - इस प्रकार की तीव्र लालसा, उत्कट लालसा, जीवन में सत्संग की हो । इस प्रकार की लालसा से यह होगा कि असत् के त्याग का बल आप में आ जायेगा । और जब असत् के त्याग का बल आप में आ जायेगा, तब सत् का राग स्वत: हो जायेगा ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 39-40)