Monday 25 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 25 November 2013 
(मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

सत्संग एवं श्रम-रहित साधन की महत्ता - 1
                   
मानव-सेवा-संघ 'विचार-संघ' है, प्रचार-संघ नहीं । इसलिये अभी जो चर्चा आपके सामने करनी है, वह जीवन उपयोगी है । कल सायंकाल की चर्चा में सम्भवतः ऐसा निवेदन किया था कि हम सब भाई-बहिन इस बात को ठीक-ठीक जानते हैं कि सुषुप्ति में अर्थात् गहरी नींद में हम बे-सामान और बे-साथी के होते हुये भी दुःख से रहित होते हैं, और उस सुखद अनुभूति को हम लोग, प्राय: जगने पर कहते हैं कि आज बड़े आराम से सोये, बड़ा मजा रहा, इत्यादि । अर्थात् बे-सामान और बे-साथी के होने पर भी हम सुख भोगते हैं; किन्तु उसकी वास्तविकता क्या है, उसको ठीक-ठीक अनुभव नहीं कर पाते । यदि आप यह जानना चाहते हैं कि बिना सामान व साथी के और बिना परिश्रम के जो जीवन है, वह जीवन क्या है ? तो उसके लिये जाग्रत-सुषुप्ति आवश्यक है । जाग्रत-सुषुप्ति कैसे होती है ? इस सम्बन्ध में विचार करने से ऐसा मालूम होता है कि जिस समय आप अपने आवश्यक कार्य को पूरा करके श्रम-रहित होते हैं तथा दूसरे किसी कार्य का आरम्भ नहीं करते, यानी एक कार्य की समाप्ति और दूसरे कार्य के प्रारम्भ करने से पूर्व, उस मध्य काल में किये हुये का स्मरण आता है अथवा जो करना चाहते हैं, उसका चिन्तन होता है । इस दशा को हम सभी समझते हैं । सभी उससे परिचित हैं । इसी दशा को लोगों ने 'मन की चंचलता' के नाम से कथन किया है और इसी श्रम के फलस्वरूप ऐसा कहने लगते हैं कि हम तो जैसे होंगे वैसे होंगे, पर मन हमारा बहुत ही चंचल है। और मन के सुधार की बात आज का साधक-समाज प्राय: कहता-सुनता रहता है। बड़े-बड़े गुरु-शिष्य-सम्वाद के रूप में अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं - मन के स्वरूप को समझाने के सम्बन्ध में । किन्तु इस विषय में मेरा ऐसा नम्र निवेदन है कि जो करण है वह कर्त्ता नहीं होता ।

कोई भी फाउण्टेनपेन लेखक नहीं है । इसी न्याय के अनुसार कोई मस्तिष्क, कोई भी करण, शरीर का कोई भी अवयव अथवा शरीर कर्त्ता नहीं है। फिर कर्त्ता कौन है ? आप कहेंगे, शरीर से अतीत, दिव्य चिन्मय परम तत्त्व जो आत्मा-परमात्मा है । क्या वह कर्त्ता है ? वह कर्त्ता नहीं है । क्यों ? क्योंकि कर्त्ता वह होता है, जो भोक्ता हो । वह भोक्ता है नहीं । वह क्या है ? वह सर्व का आश्रय है, सर्व का प्रकाशक है, किन्तु कर्त्ता है नहीं । और 'यह' करके जिसे आप सम्बोधन करते हैं वह भी कर्त्ता नहीं है । तो कर्त्ता फिर कौन है ? यह एक दार्शनिक प्रश्न है । इस दार्शनिक प्रश्न पर विचार करने से ऐसा मालूम होता है कि जिसका स्वतंत्र अस्तित्व न हो और जिससे वह मिल जाय, उसी जैसा भासित होने लगे, वही देवता कर्त्ता है । उसी का नाम है - 'मैं' । यह 'मैं' 'यह' है, न 'वह'। यह  'मैं' जब जाग्रत-सुषुप्ति को प्राप्त करता है, अर्थात् जाग्रत में जब सुषुप्त हो जाता है, तब उसे इस बात का स्वयं बोध हो जाता है कि मैं बिना सामान के, बिना साथी के, बहुत ही आराम से रह सकता हूँ । सुख-दुःख में यह सामर्थ्य नहीं है कि वे मुझ तक पहुँच सकें । इसी की चर्चा कल प्रवचन समाप्त करते समय की गई थी ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 38-39)