Sunday 24 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 24 November 2013 
(मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधना की अभिव्यक्ति के लिये जीवन के सत्य को स्वीकार 
करो - 2
                   
मानव-सेवा-संघ ने कहा - तुम पहले सत्य को स्वीकार करो, सत्य को स्वीकार करने से अकर्त्तव्य, असाधन और आसक्ति मिटेगी । यह पहले मिटेगी । और जब अकर्त्तव्य मिट जायगा, तब जो कर्त्तव्य-परायणता आयेगी और जब आसक्ति मिट जायगी, तब जो प्रियता आयेगी, वह कर्त्तव्य-परायणता, वह असंगता और वह प्रियता आपके जीवन में साधना के रूप में प्रकट होगी, यानी वह आपकी साधना हो जायगी । और जब साधना के रूप में असंगता, कर्त्तव्य-परायणता और प्रियता आपको प्राप्त होगी, तब निर्विकारता, शान्ति, मुक्ति और भक्ति भी आपको प्राप्त हो जायगी । ऐसी बात नहीं है कि कर्त्तव्य-परायणता के बिना आपको निर्विकारता और शान्ति मिल जाय, असंगता के बिना आपको मुक्ति मिल जाय और आत्मीयता के बिना भक्ति मिल जाय । यह कभी नहीं होगा। भक्ति जब मिलेगी, तो आत्मीयता से ही मिलेगी और मुक्ति जब मिलेगी, तो असंगता से ही मिलेगी, निर्विकारता जब मिलेगी, तब निर्ममता से ही मिलेगी और चिर-शान्ति जब मिलेगी, तो निष्कामता से ही मिलेगी । यह जीवन का अटल सत्य है ।

तो, मैं यह निवेदन कर रहा था कि निर्मम होना, असंग होना अथवा परमात्मा से आत्मीय सम्बन्ध स्वीकार करना - यह सत्संग हुआ । अगर आप सत्संग करेंगे, तो साधना स्वत: प्रकट हो जायगी । और महाराज, साधना और साध्य में विभाजन नहीं होता, साधना और साध्य में दूरी नहीं रहती, भेद और भिन्नता नहीं रहती । तो साधना साध्य से अभिन्न हो जायगी । इसमें कोई सन्देह की बात नहीं है । परन्तु जीवन में साधना की अभिव्यक्ति होनी चाहिये और साधना की यह अभिव्यक्ति एक-मात्र सत्संग से ही होगी, अन्य किसी प्रकार नहीं हो सकती । आप सोचिये कि सत्संग के बिना भी आप बलपूर्वक साधना तो कर सकते हैं, लेकिन वह जीवन के साथ अभिन्न नहीं होगी। इस प्रकार की हुई साधना से आप अपने को अलग अनुभव करेंगे और बलपूर्वक की हुई साधना को अलग अनुभव करेंगे और कहेंगे कि आज मैंने इतनी देर ध्यान किया । ध्यान अलग और आप अलग । आज मैंने इतना जप किया । जप अलग और आप अलग । आज मैंने इतना तप किया । तप अलग और आप अलग । आज मैंने इतना दान दिया । दान अलग और आप अलग । इस प्रकार की भिन्नता रहेगी ही और जब इस प्रकार की भिन्नता रहेगी, तो 'आपका' जो अस्तित्व रहेगा, वह साधन रूप नहीं हो पाएगा । इसलिये सत्संग के द्वारा आपके अस्तित्व में ही, किसी और में नहीं, आपके अस्तित्व में ही, साधना की अभिव्यक्ति हो जायेगी ।

जब मनुष्य के अस्तित्व में साधना की अभिव्यक्ति हो जाती है, तो फिर असाधन की उत्पत्ति नहीं होती । क्योंकि अगर साधन से अलग यदि अपना कोई अस्तित्व रहता, तो सम्भव है, फिर कभी असाधना आ जाती । लेकिन जब साधक की साधना से भिन्न उसका अलग कोई अस्तित्व रहता ही नहीं, तो फिर सदा के लिये असाधन का नाश हो जाता है, और जब असाधन का नाश सदा के लिये हो गया, तो फिर साधना और साध्य तो अभिन्न हैं ही, बल्कि ऐसा कहना चाहिये कि साधना तो साध्य की ही महिमा है, और कुछ नहीं है । तो साधना का जो रूप हुआ वह साधक का जीवन भी है और साध्य की महिमा भी है । इससे यह सिद्ध हुआ कि साध्य की महिमा साधक का जीवन है । यह बड़े रहस्य की और गम्भीर बात है । साध्य की महिमा, और महिमा किसे कहते हैं ? महिमा का अर्थ होता है, जो हमें आकर्षित कर सके, खींच ले । इस प्रकार हमारा जीवन ही साध्य की महिमा हो गई । तो फिर महिमा हम को खींच लेगी न । जरूर खींच लेगी । इसी सत्य को समझाने के लिए हमने विद्वान् महानुभावों के श्रीमुख से सुना है कि परमात्मा, जिसे पसन्द करता है, उसको स्वयं वरण कर लेता है । अब प्रश्न होगा कि परमात्मा किसे पसन्द करता है ? मानव-सेवा-संघ की विचारधारा के अनुसार इसका उत्तर होगा कि जो सत्संग के द्वारा अपने में साधना को प्रकट कर लेता है, अथवा सत्संग के द्वारा जिसमें साधना प्रकट हो जाती है, परमात्मा उसी को पसन्द करता है ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 36-38)