Saturday, 23 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 23 November 2013 
(मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

साधना की अभिव्यक्ति के लिये जीवन के सत्य को स्वीकार 
करो - 2

जीवन के सत्य को स्वीकार किये बिना, सत्संग से वंचित होकर, सत्संग से विमुख होकर-हमारे किये सत्कार्य का, सत्-चिन्तन का और हमारी की हुई सत्-चर्चा का यह फल नहीं होगा कि हमारे जीवन में साधना की अभिव्यक्ति हो जाय और हम सत्य से अभिन्न हो जायें । यही कारण है कि आज आप समय का बहुत बड़ा भाग सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन में लगा देते हैं और समय और सम्पत्ति का बहुत बड़ा भाग आप सत्कार्यों में लगा देते हैं । आपने समय और सम्पत्ति को सत्कार्यों में लगाया, आपने सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन किया । परन्तु सत्संग न करने से आपके जीवन में साधना की अभिव्यक्ति नहीं हुई। और जब जीवन में साधना की अभिव्यक्ति नहीं होती, तब साधना हमारे लिए एक भार हो जाती है, एक अस्वाभाविक बात हो जाती है । कभी-कभी, आपने देखा होगा कि बड़े उत्साह से, बड़े प्रेम से हम नित्यकर्म करने बैठ गये, किया और जिस समय नित्यकर्म पूरा हो जाता है, उस समय जैसी  'रिलीफ' आपको मालूम होती है, वैसी रिलीफ नित्यकर्म करते समय मालूम होती है क्या? आपने इस विषय में विचार नहीं किया होगा तो ठीक उत्तर दे नहीं पायेंगे। आप कभी अनुभव करके देखिये । आप किसी भी अनुष्ठान को करने के लिये तत्पर हो जाइये। जिस समय अनुष्ठान सम्पन्न होता है और आप थोड़ी देर के लिए न करने की स्थिति में आते हैं, उस समय जैसा संतोष आपको मालूम होता है, वैसा संतोष अनुष्ठान-काल में नहीं मालूम होता ।
             
भागलपुर में एक महात्मा बड़े यज्ञ कराया करते हैं, बहुत से यज्ञ उन्होंने कराये हैं । और उनके यज्ञों में लाखों रुपये का व्यय होता है, और लाखों रुपया एकत्रित भी हो जाता है - ऐसे यज्ञ कराते हैं वे । हमने सोचा कि चलें, महात्मा से भेंट कर आवें । जब हम उनसे भेंट करने गये, तो उनके मुँह से सबसे पहले यही बात निकली - 'महाराज, ऐसी कृपा कीजिये कि अनुष्ठान सानन्द सम्पन्न हो जाय'। उन्होंने यह कहा तो ठीक ही कहा - सच्ची बात ही कही । पर हमें लगा कि हमने जो सोचा था कि ये अनेक यज्ञ कर चुके हैं, लाखों रुपये व्यय कर चुके हैं, तो ये बिल्कुल निश्चिन्त जरूर होंगे । पर ऐसी बात नहीं थी, ऐसा होता नहीं है। कितना भी बड़ा काम कीजिए और सफल भी हो जाइये, फिर भी उस कार्य की पूर्ति-काल में जो सन्तोष होता है, वह कार्य-काल में नहीं । एक बात । दूसरी बात यह है कि कार्य के द्वारा आपको जो थोड़ा सा सन्तोष होता है, वह पुन: कार्य करने के संकल्प को जन्म दे देता है । यह बड़ी ऊँची बात है, बड़ी गम्भीर बात है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 34-36)