Friday, 22
November 2013
(मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)
साधना की अभिव्यक्ति
के लिये जीवन के सत्य को स्वीकार करो - 1
मिली हुई वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं है और देखी हुई सृष्टि का स्वतन्त्र
अस्तित्व नहीं है। जिस का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, उसकी हम कामना नहीं करेंगे,
और जिस पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है, उसमें
ममता नहीं करेंगे । तो दो बातें सामने आती हैं, - अगर हम शरीर
से ममता नहीं करते और संसार की कामना नहीं करते, तो निर्मम होने
से निर्विकारता और निष्काम होने से चिर-शान्ति प्राप्त होती है । अब यह जो निर्विकारता
और चिरशान्ति आपको प्राप्त हुई, यह आपकी उपार्जित वस्तु नहीं
है । यह सर्वमान्य तथ्य है कि निर्विकारता का तत्त्व स्वाभाविक तत्त्व है और शान्ति
का तत्त्व भी स्वाभाविक तत्त्व है । ऐसे ही असंगता से प्राप्त स्वाधीनता है । वह भी
स्वाभाविक तत्त्व है । इसी प्रकार आत्मीयता से प्राप्त जो अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता
है, वह भी स्वाभाविक तत्त्व है । तो निर्विकारता, शान्ति, मुक्ति और अखण्ड-स्मृति तथा अगाध-प्रियता का स्वतन्त्र अस्तित्व है
। अब देखिये, जिसका स्वतन्त्र अस्तित्व है, उसी को हमें पसन्द
करना चाहिये । यदि इस बात को आप मान लें तो बड़ी सुगमतापूर्वक साधन-तत्त्व से,
साधना से अभिन्न हो सकते हैं । परन्तु हम सबसे गलती यह होती है कि निर्मम
होना पसन्द नहीं करते और हमारे पास यदि धन है, तो उसको अपना मानकर
लोभ करते हैं । यदि ऐसा न करें, तो धन के लोभ की उत्पत्ति ही
नहीं होती है । इस प्रकार धन से आपकी कोई हानि नहीं होती, हानि
तो उसे अपना मानने से होती है; क्योंकि धन से तो लोभ की उत्पत्ति
है ही नहीं, लोभ की उत्पत्ति हुई धन को अपना मानने से ।
जो साधक 'अपना'
मान करके दान भी कर देता है, तो महाराज ! उलटी
ही प्रतिक्रिया होती है । हमारे पास अभी एक बहिन ने कुछ रुपया भेजा है - अपनी बहिन का रुपया, आप जानकर ताज्जुब करेंगे कि उसके लिये उन्होंने अपनी तीन
पुश्तों के नाम लिखाने को कहा है कि अमुक-अमुक के नाम लिखा दें। लेकिन सोचिये तो सही,
दान देने के बाद भी, उस धन के बदले में न जाने
क्या-क्या चाहते हैं । अब आप सोचिये, उसका परिणाम यही होगा कि
हम धन देने का सुख-भोग, नाम और यश की दासता में बँध गये ।
ऐसी दशा में क्या धन से हमारा सम्बन्ध टूट गया ? या हम निर्लोभ हो गये ?
क्या यह सम्भव होगा ? परिणाम यही होगा कि इस प्रकार
के दान से हमको यश और नाम तो मिल गया; लेकिन वह दान जो दिया गया,
उसके बदले में यदि आपने आत्म-ख्याति चाही, उसका
फल चाहा, तो आपने दिया या लिया? यह ऐसा
ही दान हुआ जैसे कोई-कोई किसान खेत में बीज डाले और कहे कि हमने भूमि को दाना भेंट
कर दिया, दान दे दिया । यह तो भूमि जानती है कि इसने जो एक दाना
डाला है, उसके बदले में मुझसे कई गुना उसे लेना चाहता है। तो,
लेने के लिए जो दिया जाता है, वह दान नहीं है । वह पुण्य कर्म कहलाता
है, वह त्याग नहीं कहलाता । उससे आपको निर्दोषता प्राप्त नहीं
हो सकती, उससे आपको निरभिमानता प्राप्त नहीं हो सकती ।
इसलिये मानव-सेवा-संघ ने कहा कि ऐसा मानो, जीवन के इस सत्य को स्वीकार करो कि मुझे जो कुछ मिला है, वह मेरा नहीं है । अगर आप यह बात मान लेंगे, तो निर्विकारता
आ जायगी । उसके बदले में मुझे कुछ नहीं चाहिए - यह बात मान लें, तो चिर-शान्ति आ जायगी
। और फिर सृष्टि पर मेरा कोई अधिकार नहीं है - अगर इस सत्य को मान लेंगे, तो असंग होकर स्वाधीनता प्राप्त हो जायगी । ऐसे ही, जब
प्रभु को आप अपना मान लेंगे, तो प्रियता आ जायगी ।
अब आप देखिए, जितनी साधना है, वह सत्य को स्वीकार करने से प्राप्त
हुई, साधना सत्य को स्वीकार करने से आप में प्रकट हो गई । परन्तु
हम सत्य को स्वीकार करना तो छोड़ देते हैं और सत्-कार्य, सत्-चर्चा
और सत्-चिन्तन को पकड़ लेते हैं । मैं यह नहीं कहता कि सत्-कार्य नहीं करना चाहिये या
सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन नहीं करना चाहिये । ऐसा मेरा मत नहीं है । लेकिन सत्संग से
वंचित होकर, सत्संग से विमुख होकर, हमारा
किया हुआ जो सत्कार्य है, हमारा किया हुआ जो सत्-चिन्तन है, हमारी
की हुई जो सत्-चर्चा है, उसका वह फल नहीं होगा कि जीवन में साधना की अभिव्यक्ति हो
जाय, और हम साध्य से अभिन्न हो जायँ ।
- ‘प्रेरणा
पथ' पुस्तक से, (Page No. 32-34) ।