Thursday,
21 November 2013
(मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
अपनी ओर निहारो -
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एक होता है मिला हुआ, एक होता है प्राप्त । मिला हुआ
वही है, जिसको आप 'यह' कहकर सम्बोधन करते हैं, और प्राप्त वह है जिसको आप 'है' करके सम्बोधन करते हैं । और किसको मिला है ?
जिसको आप 'मैं' करके सम्बोधन
करते हैं । तो 'मैं' को कुछ मिला है और
भाई, और कुछ मौजूद है । जब मैं पहले मिले हुये में ममता करता
हूँ तो असत् का संग हो जाता है, और मौजूद में आस्था करता हूँ
तो सत् का संग हो जाता है । सत् का संग होते ही वह ज्ञान जिसको गुरु ने कहा है - 'यह गुरु का ज्ञान है ।' वह ज्ञान जिसको शास्त्रों ने
कहा है -'यह शास्त्र का ज्ञान है', वह ज्ञान
जिसको पीर और पैगम्बर ने कहा है कि यह पीर और पैगम्बर का ज्ञान है, वही ज्ञान आप के जीवन में स्वत: अवतरित होता है, स्वत:
स्फुरित होता है । ऐसा क्यों ? यह मंगलमय विधान है, यों । इसी आधार पर मानव-सेवा-संघ ने कहा कि 'हे मानव
! तू क्यों निराश होकर बैठा है ? तू क्यों हार मानकर बैठा है
? तू क्यों भय से भयभीत हो कर बैठा है ?’
एक दिन मैं मानव-सेवा-संघ के निर्माण निकेतन आश्रम राँची में बैठा हुआ
था । एक विदेशी डाक्टर आये, जो लिटरेचर के डाक्टर थे । उन्होंने एक प्रश्न किया । वे हिन्दी नहीं जानते
थे और मैं इंगलिश नहीं जानता था । मेरे चार-पाँच मित्र वहाँ बैठे हुये थे । उन्होंने
कहा – महाराज, हमारे सामने एक प्रौबलम है, समस्या है, और वह यह है कि आज ऐसे विनाशकारी आविष्कार हो गये हैं, जिनको देखकर
आशंका होती है कि संसार का न जाने कब नाश हो जाय ! इस सम्बन्ध में आपका क्या विचार
है ? मैंने अपनी मिली हुई प्रेरणा के अनुसार कहा - 'मेरे भाई, मुझे तो लेशमात्र भी इसका भय नहीं है । बोले,
क्यों ? मैंने कहा, 'जो व्यक्ति
सृष्टि बना नहीं सकता, उसको चैलेंज है कि वह उसे मिटा भी नहीं
सकता । उसने कहा - सोचता मैं भी ऐसा ही था, परन्तु उसे कहने का
मेरा साहस नहीं होता था । उसने अपनी डायरी निकाली और नोट कर लिया । हमारे देश के लोगों
में और दूसरे देश के लोगों में एक बड़ा अन्तर है । हमारे देश के लोग इस बात पर ध्यान
देते हैं कि बोलने वाला कौन है, उसका मुँह कैसा है, उसकी शिक्षा-दीक्षा क्या है, आदि । विदेशी ऐसा नहीं करते
। वे जो बोला गया, उस पर विचार करते हैं । हमारे देश की आज यह
दशा है कि जो मुझसे प्रेम करते हैं, वे मेरे व्याख्यान के बाद
उठ जायेंगे । जो स्वामी जी महाराज से प्रेम करते हैं, वे उनके
व्याख्यान के बाद उठ जायेंगे । क्योंकि उन्हें इससे मतलब नहीं कि बात क्या है । उन्हें
तो सिर्फ इससे मतलब है कि मुँह कौन सा है ? यह मुँह कौन सा है,
यह भाषा कौन सी है ? यह तरीका कौन सा है ?
परन्तु जहाँ आप लोग भाषा पर दृष्टि रखते हैं, मुँह पर दृष्टि रखते हैं, तरीके
पर दृष्टि रखते हैं और जो शब्द कहे गये, उनके अर्थ पर दृष्टि
नहीं रखते, वहाँ यही परिणाम होता है कि दिमागी उन्नति तो बहुत
हो जाती है, मस्तिष्क में संग्रह तो बहुत हो जाता है;
लेकिन हृदय का पल्ला बहुत नीचे गिर जाता है । क्रियात्मक जीवन बहुत निम्नकोटि
का हो जाता है । परन्तु वह विदेशी जिज्ञासु भाई, हम लोगों की
भाँति नहीं था । उसने डायरी निकाली, नोट किया और मुझे विश्वास
दिलाया कि मैं आपका यह सन्देश अपने देश में कहूँगा । कहने का मेरा तात्पर्य केवल इतना
ही है कि आप इस बात से हार मान कर न बैठ जायँ कि हम साधारण प्राणी हैं, भला हम सृष्टि के लिए कैसे उपयोगी हो सकते हैं ? परन्तु
मैं सच कहता हूँ यह मिथ्या धारणा है ।
- ‘प्रेरणा
पथ' पुस्तक से, (Page No. 30-32) ।