Wednesday, 6 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 06 November 2013 
(कार्तिक शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपनी ओर निहारो - 2

मानव अपने प्रति न्याय करके स्वयं राष्ट्र हो सकता है । राष्ट्र माने क्या ? राष्ट्र किसे कहते हैं? जो प्रजा के हृदय पर राज्य करे, वह राष्ट्र । जो प्रजा कानूनी चोरी करे, उसे प्रजा नहीं कहते । ऐसा राष्ट्र, राष्ट्र कहलाने लायक नहीं है, जो ऐसे अनर्गल कानून बनावे, जिनका ईमानदारी से कोई पालन ही न कर सके । आप स्वयं सोचिये, इनकमटैक्स डिपार्टमेंट के रहते हुये चैलेन्ज है - किसी भी देश में देखें - ईमानदारी का होना क्या सम्भव है ? बिल्कुल गलत बात । क्योंकि व्यक्तिगत श्रम के महत्त्व का आप आदर ही नहीं करना चाहते । अरे भाई ! राष्ट्र को सम्पत्ति चाहिए, तो सम्मान देकर उसे ले सकते हो, ईमानदार मानकर ले सकते हो । परन्तु आप तो पहले प्रजा को बेईमान बनाते हो और फिर सम्पत्ति को बलपूर्वक छीनते हो । इसका नतीजा क्या होता है ? जैसे-जैसे गलत कानून बनते हैं, वैसे-ही-वैसे इनकमटैक्स एक्ट पर वकील लोग ऐसी-ऐसी चालें सुझाते हैं महाराज ! कि जिन्हें न्यायाधीश तो समझ नहीं पाते और इस प्रकार के कानून बिलकुल निरर्थक सिद्ध होते जाते हैं। यह केवल एक मोटा उदाहरण है । और मेरा यह विषय भी नहीं है । यह तो केवल उदाहरण मात्र है ।

        जब तक मानव-समाज अपने साथ अपने आप न्याय करना नहीं सीखेगा, राष्ट्रीयता से बहुत दूर रहेगा । राष्ट्रीयता के गीत चाहे भले गाता रहे, राष्ट्रीयता के नाम पर व्यक्तित्व की पूजा चाहे भले ही कराता रहे, परन्तु राष्ट्रीयता क्या है? इस रहस्य को वह जान नहीं सकता । मानव-सेवा-संघ ने कहा - 'हे मानव ! मानव होने के नाते तेरे जीवन में जो न्याय का तत्त्व है, उस न्याय का तू उपयोग अवश्य कर; परन्तु उस न्याय का उपयोग तु अपने ही पर कर । प्यारे ! दूसरे पर मत कर । औरों पर क्षमा का ही उपयोग कर, प्रेम का उपयोग कर । अपने प्रति तो न्याय का ही उपयोग कर ।'

जो मानव अपने प्रति ही न्याय करता है, वह निर्दोष जीवन को सुरक्षित रखने में सफल होता है, समर्थ होता है । और जो दूसरे के साथ क्षमा और प्रेम का व्यवहार करता है, वह परस्पर में वैर-भावना व संघर्ष को मिटा कर एकता का पाठ पढ़ाने में समर्थ होता है । एकता निर्वैरता में है, एकता क्षमा और प्रेम में है। निर्दोषता न्याय में है, निर्दोषता कहीं बाहर नहीं है । राष्ट्र के द्वारा जब न्याय होता है, तब उसका परिणाम क्या होता है ? विचार कीजिये । कोई भी बुराई किसी के जीवन में से उस समय तक नहीं निकल पाती, जब तक कि बुराई-जनित वेदना की मात्रा बुराई-जनित सुख-लोलुपता से अधिक न बढ़ जाय । बुराई तभी नाश होती है । परन्तु दूसरे के द्वारा जब न्याय होता है, तब यदि अपराध से अधिक दण्ड मिल गया, तो क्रोधपूर्वक आदमी बुराई करने लगता है और अपराध से कम दण्ड मिले, तो वह लोभपूर्वक बुराई करने लगता है। कोई भी राष्ट्र, मैं किसी राष्ट्र-विशेष की बात नहीं कहता - कोई भी राष्ट्र ईमानदारी से यह नहीं कह सकता कि हमने अपनी राष्ट्रीयता के द्वारा संसार में न्याय की स्थापना करके निर्दोषता को सुरक्षित रख सकने में सफलता पाई है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 25-27)