Tuesday 5 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 05 November 2013 
(कार्तिक शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपनी ओर निहारो - 2

आज कितने साधक हैं, जो यह नहीं कहते कि हमारा मन बड़ा खराब है? और, महाराज ! कहते भर ही नहीं, अपने कथन की पुष्टि में ऐसे-ऐसे प्रमाण देकर कहते हैं कि हमारे जैसा बेपढ़ा व्यक्ति तो उन्हें सुनकर डर ही जाय । बड़े-बड़े आदमियों के नाम ले-लेकर डराते-धमकाते हैं । लेकिन आप जानते हैं कि शास्त्र माने दर्शन और दर्शन का अर्थ आपके अनुभव से है । और जिन शास्त्रों को आप शास्त्र की संज्ञा देते हैं, उनमें ऐसी बातें होती हैं जिनमें किसी दशा-विशेष का वर्णन पाया जाता है और जिनको आप भी जानते हैं । शास्त्र में पूर्व पक्ष होता है और उसमें उत्तर पक्ष भी होता है । आप भी अपने में जब आगे-पीछे का व्यर्थ-चिन्तन देखते हैं, तब यही कहते हैं कि हमारा मन बड़ा चंचल है। इसी प्रकार की दशाओं का वर्णन शास्त्र में मिलता है । लेकिन ऐसी दशाओं को सिद्धान्त रूप से स्वीकार करना, क्या युक्ति-युक्त होगा ? क्या उन्हें निर्णयात्मक सिद्वान्त माना जा सकता है ? क्या उन्हें अटल सत्य या निर्विवाद निर्णय की संज्ञा दी जा सकती है ? कदापि नहीं । उन्हें निर्णायक सत्य के रूप में मान लेने में जीवन के सत्य के साथ एकता नहीं होगी । क्योंकि दशा-विशेष के चित्रण और अविचल सिद्धान्त में अन्तर रहना स्वाभाविक है । तो आप जब अपनी इस दशा से परिचित होते हैं, तब आपको एक सुनहरा अवसर मिलता है, इस बात के लिए कि आप भूतकाल में जो कर चुके थे, उस पर अपने ही द्वारा अपने सम्बन्ध में विचार कर सकें । यह मानव-सेवा-संघ की सत्संग-योजना है । यह मानव-सेवा-संघ का एक नित्य-कर्म है । यह मानव-मात्र का अपना नित्यकर्म है कि जब उसे अपने भूतकाल के चित्र का दर्शन हो, वह दिखाई दे, तब वह उस पर विचार करे कि इसमें मैंने ऐसी कौन सी बातें की हैं, जो नहीं करनी चाहिए थीं । यदि आपने उस पर विचार कर लिया और न करने वाली बातों को पुन: न करने का निर्णय कर लिया, तो सच मानिये, आप वर्तमान में उतने ही निर्दोष हैं, जितने निर्दोष उस भूल को करने से पूर्व थे । क्यों निर्दोष हैं ? इसलिये निर्दोष हैं कि यह न्याय के अनुरूप है ।

न्याय का सबसे पहला अंग है - कि हम अपनी भूल से परिचित हो जायँ, अपराधी अपने अपराध को जान ले, दोषी अपने दोष को स्वीकार कर ले । यह न्याय का पहला अंग है । दूसरा अंग है कि दोषी उस दोष-जनित प्रवृत्ति के कारण दुःखी हो जाय, व्यथित हो जाय, पीड़ित हो जाय । तीसरा अंग है कि उसके न दोहराने का निर्णय कर ले । आप पूछ सकते हैं कि इस से लाभ क्या होगा? गम्भीरता से विचार करें । जिस समय आप अपने दोष को जानेंगे, दोष आप से भिन्न होगा; क्योंकि जो जानने में आता है, वह जानने वाले से भिन्न होता है। फिर जिस समय आप अपनी भूल से पीड़ित होंगे, भूल-जनित सुख-लोलुपता का नाश होगा और जब भूल-जनित सुख-लोलुपता का नाश हो जायगा, तब भूल स्वत: पुन: उत्पन्न नहीं होगी । और जब भूल स्वत: उत्पन्न नहीं होगी, तब आपकी निर्दोषता सुरक्षित रहेगी । इस प्रकार का न्याय अगर आप अपने साथ करना सीख जायँ, तो आप अपने शासक हो गये । यह है, मानव की अपनी राष्ट्रीयता, यह है मानव-जीवन की राष्ट्रीयता ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 24-25)