Monday, 4 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 04 November 2013 
(कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपनी ओर निहारो - 2

अब हम और आप सोचें, जो भाई यहाँ बैठे हैं, सोचें और अपने से पूछें कि इस समय आप कैसे हैं? उत्तर में आप यह नहीं कह सकते कि इस समय हम कोई बुराई कर रहे हैं, आप यह नहीं कह सकते । लेकिन आप कहेंगे – “महाराज ! हम क्या बतायें, हम तो बड़े दुनियादार हैं ।“ मानो अपने को दुनियादार कहकर बुराई करने का सर्टीफिकेट आपको मिल चुका है । बहुत से लोग कहते हैं – ‘महाराज ! क्या बतायें, हम तो गृहस्थ हैं ।‘
                              
सोचो ! गृहस्थ के माने यह थोड़े ही है कि आप वह करें, जो आपको नहीं करना चाहिये । मेरा नम्र निवेदन है कि आपका वर्तमान तो सर्वांश में निर्दोष है, फिर भी भूतकाल में आप जो भूल कर चुके हैं और उसका जो दृश्य आपमें अंकित है, उसके ही आधार पर आप ऐसा कहते हैं कि हममें लोभ है, हममें मोह है, हममें काम है, हममें क्रोध है । पर भूतकाल में की हुई भूल के प्रभाव के अतिरिक्त इसका और कोई कारण नहीं है । नहीं तो, आप ही बताइये, इसमें कौन सा हेतु है ? अपने अनुभव के आधार पर ही ऐसा कहते हैं । आपने भूत में जो कुछ किया है और जैसा भी किया है, वह आपसे छिपा नहीं है । वह आपके अनुभव में है, आपकी जानकारी में है । परन्तु उसका पता आपको तब चलता है, जब आप आवश्यक कार्य पूरा करके थोड़ी देर के लिए शान्त होते हैं । उस समय आपके जीवन में चिन्तन के रूप में जो उत्पन्न होता है, वह क्या है ?

महाराज ! वह उसी का तो सूची-पत्र है, जो आप कर चुके हैं । वह क्या है? वह उस बात की सूची है, जो आप भविष्य में करना चाहते हैं । आप देखें, बड़े से बड़े विज्ञानवेत्ता इस पर विचार करें, दार्शनिक लोग विचार करें, साहित्यिक लोग विचार करें, और यह सोचें कि जब आप थोड़ी देर के लिये श्रम-रहित होते हैं, शान्त होते हैं, तब आप अपने में क्या पाते हैं ? तब उसमें आगे और पीछे का चिन्तन ही तो पाते हैं । और वह चिन्तन होता है उसका, जो स्वरूप से उस समय मौजूद नहीं है; जो कर चुके हैं, उसका चिन्तन, जो भविष्य में करना चाहते हैं, उसका चिन्तन । तो वर्तमान में जो नहीं है, उसका चिन्तन आप अपने में पाते हैं - न चाहते हुए भी पाते हैं, और न करते हुए भी पाते हैं । और जब आप अपने उस चित्र को देखते हैं, तब भयभीत होकर घबराने लगते हैं और निन्दा करने लगते हैं अपने मन की । कहते हैं - 'मन हमारा बड़ा खराब है ।' ऐसा कहना उसी के समान है, जैसे यदि कोई दर्पण में जाकर अपना चित्र देखे और उसे देखकर खड़ा-खड़ा दर्पण को गाली दे - 'यह दर्पण बड़ा खराब है ।' उसके ऐसे व्यवहार पर आप यही तो कहेंगे कि यह पागल हो गया है । क्या इस प्रकार के पागलपन से हम बचे हैं?


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 22-24)