Thursday, 7 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 07 November 2013 
(कार्तिक शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपनी ओर निहारो - 2

हम लोगों को बताया जाता है; पर मैं तो उस राजनीति में घुस कर निकला हूँ, मैं वास्तविकता को जानता हूँ । हम लोग सोचा करते थे कि जहाँ रोटी का प्रश्न रहता है, वहाँ बेईमानी रहती है; लेकिन आज मैं पढ़े-लिखों से सुनता हूँ कि रूस में 25 आदमियों के पीछे एक पुलिस मैन है, वहाँ तो रोटी का प्रश्न नहीं है । जहाँ रोटी का प्रश्न नहीं है, वहाँ इतनी पुलिस की आवश्यकता क्यों हो गई भाई ? जहाँ रोटी का प्रश्न नहीं, वहाँ फौज की आवश्यकता क्यों हो गई भाई ? जहाँ मानव-मात्र के साथ सद्भावना है ही, वहाँ विनाशकारी आविष्कारों की आवश्यकता क्यों हो गई भाई ? सोचो जरा, गम्भीरता से विचार करो । यह सर्वथा भ्रमात्मक धारणा है कि राष्ट्र होकर हम सुन्दर समाज का निर्माण कर सकते हैं । गलत, बिल्कुल गलत । हाँ, एक उपाय है । हमारे और आपके जीवन में राष्ट्रीयता आ जाय, जीवन में राष्ट्रीयता का सही उद्देश्य आ जाय, अर्थात् हम अपने साथ न्याय करना सीख जायँ । चाहे पिता-पुत्र की बात हो, अपने साथ न्याय करें; पति-पत्नी के बीच की बात हो, तो अपने साथ न्याय करें । भाई-भाई के बीच की बात हो, तो अपने साथ न्याय करें । दो वर्गों के बीच की बात हो, तो अपने साथ न्याय करें । दो देशों के बीच की बात हो, तो अपने साथ न्याय करें। दो इज्मों के बीच की बात हो तो, दो मजहबों के बीच की बात हो तो । और यदि हम स्वयं अपने-अपने साथ न्याय करना आरम्भ कर दें तो राष्ट्रीयता आपके जीवन में अवश्य ही मूर्तिमान होकर अवतरित हो जायगी और जिस समय राष्ट्रीयता आपके जीवन में आ जायगी, आप राष्ट्र ही नहीं, राष्ट्रपति बनने के सच्चे अधिकारी हो जायेंगे, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है ।

किन्तु मेरे भाई ! आज दशा तो यह है कि कानून किताब में रहता है और डिपार्टमेंट बढ़ते चले जाते हैं और काम गलत होते जाते हैं । मेरा नम्र निवेदन केवल इतना ही था कि मानव-सेवा-संघ का प्रादुर्भाव समाज की व्यथा से हुआ, और जिसका प्रादुर्भाव व्यथा से हुआ, उसने यह कहा कि 'हे मानव ! तू यदि राष्ट्र बनना चाहता है, तो अपना राजा बन जा, अपना मिनिस्टर बन जा, अपना जज बन जा । तू जब अपना जज बन जायगा, तब निस्सन्देह तेरे जीवन में निर्दोषता सुरक्षित रहेगी और जिसके जीवन में निर्दोषता सुरक्षित रहती है, उसकी माँग जगत् को भी होती है, उसकी माँग प्रभु को भी होती है और वह अपनी दृष्टि में भी अपने को आदर के योग्य पाता है । निर्दोष-जीवन के बिना न हम जगत् के लिये उपयोगी होते हैं, न अपने लिये उपयोगी होते हैं और न प्रभु के लिये ही उपयोगी होते हैं । और वह निर्दोषता केवल राष्ट्रीयता के द्वारा, अर्थात् अपने प्रति न्याय करने से प्रत्येक भाई को, प्रत्येक बहिन को प्राप्त हो सकती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 27-28)