Saturday 2 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 02 November 2013 
(कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपनी ओर निहारो - 1

हम मानव हैं और मानव होने के नाते हमारे जीवन का बड़ा महत्त्व है, उसकी बड़ी महिमा है । महिमा इसलिए है कि जितने भी प्रश्न हैं, वे सब मानव के ही सामने हैं । यदि दुःख-निवृत्ति का प्रश्न है, तो मानव का प्रश्न, परमशान्ति का प्रश्न है, तो मानव का प्रश्न, स्वाधीनता का प्रश्न है, तो मानव का प्रश्न और परम प्रेम का प्रश्न है, तो मानव का प्रश्न ।
     
यह बात केवल आपके ही जीवन में है, इसलिए आप अद्वितीय है । आप जो कर सकते हैं, वह कोई दूसरा नहीं कर सकता । आपको जो मिल सकता है, वह किसी अन्य को नहीं मिल सकता । इसलिए निसंदेह आप अनुपम हैं । आप कहेंगे, क्यों ? प्रभु ने सृष्टि की रचना भले ही की हो, पर प्रभु में यह सामर्थ्य नहीं है कि वे किसी को यह कह सकें कि तुम मेरे नहीं हो । और आप जानते ही हैं - आपमें यह सामर्थ्य है कि मिली हुई प्रत्येक वस्तु की ममता को आप छोड़ सकते हैं, कामना तोड़ सकते हैं । और आप यह भी जानते हैं कि प्रभु जिसे अपना कहते हैं, उसे जानते भी हैं । लेकिन आपमें यह विलक्षणता है कि आप उनको बिना जाने ही अपना कह सकते हैं । आप सोचिये, इन्द्रिय-दृष्टि से, बुद्धि-दृष्टि से आप जो जानते हैं, उसकी ममता-कामना छोड़ सकते हैं । और जिसको केवल सुना है, जानते नहीं हैं, उससे आप आत्मीय सम्बन्ध जोड़ सकते हैं। यह अनुपम कार्य मानव ही कर सकता है । यह बात अलग है कि उसने इतना सुन्दर आपको बनाया है ! किसने ? जिसे आप जानते नहीं, पर जो आपको जानता है ।

मुझे कोई नई बात आपको नहीं बतानी है । क्यों ? मुझे यह विदित हो गया है कि उसी की अहैतुकी कृपा से प्रत्येक मानव का गुरु, उसका नेता और उसका शासक सदैव उसके साथ है, सदैव ही उसके साथ है । आपका गुरु, आपका नेता आपमें मौजूद है । परन्तु उसकी उपस्थिति का फल आपको तभी मिल सकता है, जब आप अपना गुरु बनना पसंद करें तब, जब आप अपना नेता बनना पसंद करें तब, जब अपना शासक बनना पसंद करें तब । किन्तु हमसे भूल यह होती है कि हम अपने नेता, गुरु, शासक न बनकर दूसरों के नेता, गुरु और शासक बनना पसंद करते हैं । और उसका परिणाम होता है - आप जानते हैं, क्या? उसका परिणाम होता है कि हमारे पीछे बहुत से भाई-बहन चलने लगते हैं, हमारे गीत गाने लगते हैं, हमारी महिमा का वर्णन करने लगते हैं । लेकिन यदि आप शिष्यों की दशा को देखें, तो एक चीज आप उनमें पायेंगे और वह यह कि आज के युग में शिष्य वही कहलाता है, जो गुरु की बात न माने । जितना क्रोध आज ईसा के पीछे चलने वालों में है, उतना किसी में है क्या ? विनाशकारी आविष्कार उन्हीं लोगों ने किये हैं जिन्होंने ईसा को अपना नेता-गुरु-पीर-पैगम्बर-पथ-प्रदर्शक माना है । विचार कीजिये, यह आज के शिष्य की लीला है कि गुरु को माने, पर गुरु की बात को न माने । और आप जानते हैं कि आज के समाज की क्या गति है ? नेता को माने, उसके स्मारक बनाये, उसकी शताब्दी मनाये, पर बात उसकी न माने । यह आज के समाज की दशा है । और आप जानते हैं कि आज के शासक की क्या दशा है ? जिस बात को करने के लिए दूसरे को मना करे, स्वयं उसी को करे । ऐसी भयंकर परिस्थिति में एक मौलिक प्रश्न हमारे-आपके सामने उपस्थित है और वह मौलिक प्रश्न यह है कि हमारे व्यक्तिगत जीवन का चित्र आज क्या से क्या हो गया है, पारिवारिक-जीवन कैसा बिगड़ गया है, और सामाजिक जीवन कैसा विकृत हो गया है! इनको सँभालने का यह जो मौलिक प्रश्न हमारे सामने है, उसी पर ध्यान देना है और जीवन के उस प्रश्न पर जब आप विचार करेंगे, तो आपको मानना पड़ेगा और मैं ऐसा कहने के लिये इसलिए बाध्य हूँ कि जो बहुत से भाई-बहिन मिलते हैं, वे यही कहते हैं कि क्या बतायें महाराज ! भगवान् को हम मानते तो हैं, और चाहते भी हैं, पर उनमें मन ही नहीं लगता । आत्मा को हम जानते तो हैं, सुना भी है, पर इस ज्ञान में दृढ़ता नहीं होती । महाराज ! हम तो भौतिकवादी हैं, संसार को मानते हैं, पर विश्व-प्रेम की अभिव्यक्ति ही नहीं होती । यह तो है हमारी व्यक्तिगत दशा । जिसको मानतें हैं, उसी में मन नहीं लगता । जिसको मानते हैं, उसी में प्रेम नहीं होता । जो जानते हैं, उसी को आचरण में नहीं लाते । यही आज हमारी व्यक्तिगत दशा है । अब पारिवारिक दशा को देखिये सरकार! पारिवारिक दशा यह है - मेरे पास बहुत सी बहिनों की, बहुत से भाइयों की ऐसी अनेकों बातें सामने आती हैं, जिनमें पत्नी पति से असन्तुष्ट है, पति पत्नी से असंतुष्ट है, भाई-भाई से असन्तुष्ट है, पिता पुत्र से असन्तुष्ट  है, पुत्र पिता से असन्तुष्ट है और क्या बतायें, पड़ोसी-पड़ोसी से असन्तुष्ट है । यह आज हमारी पारिवारिक दशा है। और रही सामाजिक दशा की बात, तो अगर शुद्ध विष आप लेना चाहें, तो वह भी मिलना दुर्लभ । यह सामाजिक दशा हो गई है ।

ऐसी भयंकर परिस्थिति में उनके सुधार के लिये आज हम कहीं तो राष्ट्रीयता के गीत गाते हैं, कहीं धार्मिकता के गीत गाते हैं । न जाने क्या-क्या कहते और करते रहते हैं । चर्चा कर रहे हैं किसी और जीवन की, किसी और देश की, और हैं हम किसी और ही देश में, कुछ भिन्न ही । ऐसी शोचनीय परिस्थिति है । अत: हमें और आपको अपने साथ क्या करना है, इस प्रश्न पर हम विचार करें । मैं क्षमा चाहूँगा, मैं आपको यह नहीं कहता कि आप दूसरों के साथ क्या करें । परन्तु भाई मेरे ! यह तो आपको सोचना ही चाहिए कि आप अपने साथ क्या करें ? क्या आप अपने साथ वह करते हैं, जो आपको करना चाहिये ?


 - प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 18-20)