Friday, 01
November 2013
(कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ?
“मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए” - यह मानव का पुरुषार्थ है । सर्व-समर्थ
प्रभु अपने हैं, सब कुछ प्रभु का है - यह वेद-वाणी तथा गुरु वाणी
के द्वारा विकल्प-रहित विश्वासपूर्वक स्वीकार करना चाहिए । विश्वास से भिन्न प्रभु-प्राप्ति
का और कोई उपाय नहीं है । निर्विकारता, चिर-शान्ति तथा अविनाशी
जीवन ज्ञान से सिद्ध है और सब कुछ प्रभु का है, प्रभु अपने हैं
- यह विश्वास से सिद्ध है । विश्वास भी बल तथा ज्ञान के समान दैवी-तत्त्व है । बल जगत
की सेवा के लिए है और ज्ञान भूल-रहित होने के लिए है और विश्वास से ही प्रभु से आत्मीय
सम्बन्ध होता है । बल का उपयोग विज्ञान से होता है अथवा यों कहो कि विज्ञान भी एक प्रकार
का बल है, उसका कभी भी दुरुपयोग नहीं करना चाहिए । बल का दुरुपयोग
न करना मानवता है अर्थात् जीवन-विज्ञान है । सदुपयोग के अभिमान तथा फलासक्ति से रहित
होना अध्यात्मवाद अर्थात् मानव-दर्शन है। जीवन-विज्ञान हमें उदारता तथा अध्यात्म-विज्ञान
हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है । प्रभु अपने हैं, अपने में हैं - यह आस्था हमें
प्रेम-तत्त्व से अभिन्न करती है ।
उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम ही जीवन है, जिसकी माँग बीज-रूप
से मानव-मात्र में विद्यमान है । जीवन का जो सत्य है उसे स्वीकार करने से ही भूल की
निवृत्ति एवं योग, बोध प्रेम की प्राप्ति होती है । यह अनुभव-सिद्ध
सत्य है ।
- ‘प्रेरणा
पथ' पुस्तक से, (Page No. 17-18) ।