Thursday 31 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 31 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ?

दूसरों के द्वारा बलपूर्वक व्यक्तिगत सम्पत्ति के विभाजन-मात्र से समाज की गरीबी नहीं मिटेगी। अपितु समाज में आलस्य और विलास की ही वृद्धि होगी, जो दरिद्रता का मूल है । राष्ट्रगत सम्पत्ति हो जाने से सरकार के नाम पर समाज में एक नौकरशाही वर्ग उत्पन्न हो जाता है । समाज में बहुत थोड़े से लोगों के हाथों में देश की सारी सामर्थ्य आ जाती है । सामर्थ्य का अल्प संख्या में एकत्रित हो जाना, व्यक्तियों को सामर्थ्य के अभिमान में आबद्ध करना है, जो विनाश का मूल है । जब अधिक संख्या में सामर्थ्य विभाजित रहती है, तब मानव स्वाधीनतापूर्वक एकता तथा समता की ओर अग्रसर होता है। अकिंचन तथा स्वाधीन होने से व्यक्ति को अपने लिए सामर्थ्य की अपेक्षा नहीं रहती । फिर वह देहातीत अर्थात् जगत् से परे के जीवन को पाकर सन्तुष्ट हो, उदार तथा प्रेमी स्वत: हो जाता है; जिससे मानव की जगत् और जगत् के प्रकाशक से वास्तविक एकता हो जाती है । स्वाधीनता, उदारता और प्रेम उसका जीवन हो जाता है । उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम अविनाशी तथा अनन्त तत्त्व है अथवा यों कहो कि यह प्रभु का स्वभाव और मानव का जीवन है । पराश्रय से गरीबी नाश नहीं होती । इसी कारण सम्पत्ति के आश्रित शान्ति नहीं मिलती। परिश्रम पर-सेवा के लिए है । उसके बदले में अपने को कुछ नहीं चाहिए । तभी मानव श्रम के अंत में विश्राम को पाकर, स्वाधीन होकर उदार तथा प्रेमी हो जाता है । हमें यही करना है कि स्वाधीनता का सदुपयोग कर स्वाधीन हो जाएँ।

अपने लिए किसी अन्य की अपेक्षा न हो; अपितु अपने में जो प्रेमास्पद है, उसी की प्रीति अपना जीवन हो जाय । प्रीति और प्रीतम के नित्य-विहार में ही अनन्त, अविनाशी नित-नव रस की अभिव्यक्ति होती है । उसकी उपलब्धि ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसकी प्राप्ति एक-मात्र स्वाधीनता का सदुपयोग एवं स्वाधीन होने में है । यह जीवन का सत्य है । सत्य से अभिन्न होने के लिए यह ज्ञानपूर्वक अनुभव करना है कि संसार में मेरा कुछ नहीं है, मेरा किसी पर कोई अधिकार नहीं है, अपितु मुझ पर सभी का अधिकार है । बुराई-रहित होने से सभी के अधिकार की रक्षा स्वत: हो जाती है और भलाई का अभिमान तथा फल छोड़ देने से मानव स्वाधीन होकर, अपने में अपने को सन्तुष्ट कर अविनाशी जीवन से अभिन्न हो जाता है और फिर अनन्त की अहैतुकी कृपा से उदारता तथा प्रेम की स्वत: अभिव्यक्ति होती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 16-17)