Wednesday 30 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 30 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ?

हम क्या करें ? यह एक सजग मानव की माँग है । इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि मिली हुई स्वाधीनता का दुरुपयोग न करें, अपितु पवित्र भाव से सदुपयोग करें अथवा यों कहो कि दुरुपयोग न करने पर सदुपयोग स्वत: होगा । यह एक प्राकृतिक विधान है । हाँ, विचारपूर्वक किए हुए सदुपयोग का अभिमान न करें और उसका अपने लिए फल न माँगें । केवल कर्त्तव्य-बुद्धि से करने की बात है, जिससे विद्यमान राग की निवृत्ति हो जाय । राग-निवृत्ति से ही स्वत: योग प्राप्त होता है । यह प्रकृति से परे का विधान है । योग की पूर्णता से बोध एवं प्रेम की अभिव्यक्ति होती है । यह प्रभु का मंगलमय विधान है। प्रकृति का विधान कर्त्तव्य-विज्ञान और प्रकृति से परे का विधान अध्यात्मवाद एवं प्रभु का मंगलमय विधान आस्तिकवाद है ।

यह सर्व मान्य सत्य है कि प्रत्येक मानव में करने, जानने और मानने की सामर्थ्य है । वह उसे अपने रचयिता से प्राप्त हुई है । वह किसी प्रयास का फल नहीं है । इतना ही नहीं, यदि यह मान लिया जाय कि इन तत्त्वों की प्राप्ति से ही प्रयास का आरम्भ होता है, तो अत्युक्ति न होगी । सामर्थ्य का दुरुपयोग न करना कर्त्तव्य-विज्ञान है, इससे मानव, जगत के लिए उपयोगी होता है; किन्तु जगत में अपना कुछ नहीं है । अत: अपने को जगत् से कुछ नहीं चाहिए । यह अध्यात्म-विज्ञान अर्थात मानव-जीवन का दर्शन है । दर्शन हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है । निर्मम तथा निष्काम होने से ही स्वाधीनता से अभिन्नता होती है। जीवन-विज्ञान बुराई-रहित होने की प्रेरणा देता है और फिर स्वत: परिस्थिति के अनुसार भलाई होने लगती है । यही भौतिकवाद तथा कर्त्तव्य-विज्ञान है । यह कर्त्तव्य मानव को स्वत: करना चाहिए । यही मानवीय साम्य है, सच्चा साम्य है। यह साम्य मानव को स्वाधीनतापूर्वक अपने द्वारा अपने लिए अपनाना चाहिए। तभी व्यक्तिगत क्रान्ति से समाज और व्यक्ति में एकता होगी ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 15-16)