Tuesday, 29 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 29 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
जीवन-क्रान्ति की दिशा में एक अमर सन्देश

02-12-1972

मानव-मात्र में बीज रूप से मानवता विद्यमान है । उस विद्यमान मानवता को विकसित करने के लिए, एकमात्र सत्संग-योजना ही अचूक उपाय है । बलपूर्वक जो परिवर्तन आता है, वह स्थायी नहीं होता है और उसकी प्रतिक्रिया भी होती है । गुण-दोष व्यक्तिगत हैं। किसी वर्ग विशेष को सदा के लिए हृदयहीन, बेईमान मान लेना न्यायसंगत नहीं है। सभी वर्गों में भले व बुरे व्यक्ति होते हैं । जीवन के परिवर्तन से क्रान्ति आती है, परिस्थिति-परिवर्तन से नहीं ।
                                                                  
जीवन में परिवर्तन, जाने हुए असत् के त्याग से होता है, बल से नहीं । असत् के त्याग की प्रेरणा व्यापक हो सकती है, व्यक्तिगत सत्संग के प्रभाव से। क्या आप यह नहीं जानते हैं कि एक-एक महापुरुष के पीछे हजारों व्यक्ति चलते हैं, लेकिन हजारों व्यक्ति मिलकर एक महापुरुष नहीं बना सकते ?

अधिकार-लालसा ने अकर्मण्यता को पोषित किया है और हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जन्म दिया है, जो विनाश का मूल है । प्राकृतिक विधान के अनुसार दूसरों के साथ किया हुआ कालांतर में कई गुना होकर अपने प्रति हो जाता है। इस दृष्टि से बुराई के बदले बुराई करना अहितकर ही है । तो फिर सत्संग-योजना के अतिरिक्त और कोई उपाय क्रान्ति का नहीं है । यह जीवन का सत्य है ।

मिली हुई स्वाधीनता का दुरुपयोग मत करो और न पराधीन रहो । यह महामंत्र ही व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रान्ति में उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास तथा अनुभव है । जो सत्य जीवन में आ जाता है, वह अवश्य विभु हो जाता है, यह वैज्ञानिक सत्य है । व्यक्तिगत क्रान्ति से ही सामाजिक क्रान्ति होगी, इस वास्तविकता में अविचल रहना चाहिए; सफलता अवश्यम्भावी है। परम प्रिय छात्र अध्यापकों की सेवा में इन वाक्यों को सुना देना । आशा है, वे धीरजपूर्वक मनन करेंगे और काम में लायेंगे । सभी को सप्रेम यथोचित निवेदन करना । ॐ आनन्द !

सद्भावना सहित
शरणानन्द


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 13-14)