Friday, 15 November 2013
(कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन
प्रत्येक व्यक्ति का जीवन उस अनन्त जीवन का एक अंशमात्र है। प्रत्येक अंश उससे अभिन्न हो सकता है, जिसका वह अंश है; पर उसके सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं दे सकता । जिस सीमित परिवर्तनशील योग्यता से हम निर्णय देते हैं, वह योग्यता क्या हमारी अपनी वस्तु है? यदि हमारी वस्तु है, तो उसमें परिवर्तन क्यों है ? और उसका विनाश क्यों है ? यदि हमारी नहीं है, तो क्या हमें जिससे मिली है, उसकी ओर गतिशील होने का कभी प्रयत्न किया ? यदि नहीं किया, तो हमें किसी प्रकार के निर्णय करने का क्या अधिकार है ? व्यक्ति मिली हुई योग्यता का सदुपयोग ही कर सकता है; किसी प्रकार का अनर्गल निर्णय देकर खीझना व्यर्थ है ।
दुःख उतनी बुरी वस्तु नहीं, जितना हम मान लेते हैं। दुःख के आधार पर ही हम आनन्द की प्राप्ति कर सकते हैं। जिस प्रकार भूख ही भोजन-प्राप्ति में हेतु है, उसी प्रकार दुःख तथा मृत्यु ही अमरत्व तथा आनन्द की प्राप्ति में हेतु है । पर ऐसा तभी हो सकता है, जब हम दुःख होने पर विचार करें, भयभीत न हों। दुःख हमारे बिना ही बुलाए आया है, हम उसे रोक नहीं सकते। जिसे रोक नहीं सकते और जो अपने-आप आता है, वह किसी ऐसे की देन है, जो अनन्त है ।
उस अनन्त की देन में सभी का हित विद्यमान है । उससे भयभीत होना हमारी अपनी भूल है । जिस काल में दुःख पूर्ण जागृत होता है, उसी काल में सब प्रकार की आस्क्तियाँ अपने-आप मिट जाती है, जिनके मिटते ही हम उस अनन्त की महिमा देखने के अधिकारी हो जाते हैं । अथवा यों कहो कि उसकी महिमा का आश्रय लेकर ही उससे नित्य-सम्बन्ध स्वीकार कर लेते हैं । अतः जो कुछ हो रहा है, वह हमें 'नहीं' से 'है' की ओर गतिशील करने में समर्थ है । 'नहीं' का अर्थ अभाव है और 'है' का अर्थ अभाव-का-अभाव । इस दृष्टि से प्रत्येक 'अभाव', अभाव-का-अभाव करने में समर्थ है और प्रत्येक रचना उस अनन्त की लालसा जागृत करने में हेतु है । अतः जो हो रहा है; उसमें सब कुछ मिल सकता है ।
- 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 26-27) ।