Thursday 14 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 14 November 2013  
(कार्तिक शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

       जो हो रहा है, उससे तो हमें प्रेम तथा जीवन की ही उपलब्द्धि होती है । इस दृष्टि से जो हो रहा है, उसमें सभी का हित विद्यमान है । अतः 'होने' में प्रसन्न तथा 'करने' में सावधान रहने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए ।

        अब यदि कोई यह कहे कि वस्तु आदि के सौन्दर्य को देखकर हमारे जीवन में काम की उत्पत्ति होती है और दुःख-मृत्यु आदि को देखकर भय उत्पन्न होता है । तो कहना होगा कि हमारे देखने में दोष है । हम सीमित सौन्दर्य को देखकर ही उसमें आबद्ध हो जाते हैं और उसका भोग करने लगते हैं, अनन्त और नित्य सौन्दर्य की लालसा को सबल नहीं होने देते। प्रत्येक भोग के परिणाम में भयंकर रोग उत्पन्न होता है, जो जिज्ञासा जागृत करने में हेतु है । पर हम जिज्ञासु न होकर उस रोग-शोक आदि को देखकर खीझने लगते हैं और मनमाना कोई-न-कोई निर्णय कर बैठते हैं कि उस अनन्त की रचना में इतना दुःख क्यों है!

        इतना ही नहीं, कभी-कभी तो यहाँ तक कहने लगते हैं कि सृष्टि का कोई कर्ता नहीं है, घटनाएँ अकस्मात हो रही हैं, मृत्यु-ही-मृत्यु है, जीवन जैसी कोई वस्तु है ही नहीं; जहाँ तक सुख सम्पादित सकें, करते रहें । यद्यपि सुख-सम्पादन के परिणाम में दुःख-ही-दुःख भोगते रहते हैं और खीझते रहते हैं; परन्तु न तो घटनाओं के अर्थों पर विचार करते हैं, न उस कर्ता की कारीगरी को देखते हैं और न अपने को उसका जिज्ञासु अथवा भक्त ही मानते हैं । अपितु भोगी तथा रोगी बनकर ही जीवित रहते हैं। दुःख तथा मृत्यु के दर्शन से तो हमारे जीवन में अमरत्व त्तथा आनन्द की लालसा जागृत होनी चाहिए थी, पर ऐसा नहीं होता। उसका कारण यह है कि हम मनमाना निर्णय कर लेते हैं, जो हमारा अपना ही दोष है । हमारा निर्णय ऐसा ही होता है, जैसे कोई जल-कण सागर के विषय में मनमाना निर्णय कर ले ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 25-26) ।