Wednesday, 13 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 13 November 2013  
(कार्तिक शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

        जो हो रहा है, उसके दो रूप दिखाई देते हैं - एक तो सीमित सौन्दर्य और दूसरा प्रत्येक वस्तु आदि का सतत परिवर्तन । वस्तु आदि के सौन्दर्य को देखकर हमें उस अनन्त सौन्दर्य की महिमा का अनुभव स्वतः होने लगता है । जिस प्रकार किसी सुंदर वाटिका को देखकर वाटिका के माली की स्मृति स्वतः जागृत होती है, उसी प्रकार प्रत्येक रचना को देखकर संसाररूपी वाटिका के माली की स्मृति स्मृति जागृत होती है, क्योंकि किसी की रचना का दर्शन रचयिता की महिमा को प्रकाशित करता है । इस दृष्टि से प्रत्येक वस्तु हमें उस अनन्त की ओर ले जाने में हेतु बन जाती है और हम उसकी रचना देख-देखकर नित-नव प्रसन्नता का अनुभव करने लगते हैं । यहाँ तक कि प्रत्येक रचना में उस कलाकार का ही दर्शन होने लगता है। ऐसा प्रतीत होने लगता है कि यह सब उस अनन्त की लीला ही है, और कुछ नहीं ।

        अनन्त की लीला भी अनन्त ही है और उसका दर्शन भी अनन्त है । लीला का बाह्य स्वरूप भले ही सीमित तथा परिवर्तनशील हो, पर उसके मूल में तो अनन्त नित्य चिन्मय तत्व ही विद्यमान है । उनकी अनुपम लीला का दर्शन उनकी चिन्मय दिव्य प्रीति जागृत करने में समर्थ है । अतः जो हो रहा है, उसका प्रभाव प्रेमी बनाकर प्रेमास्पद से अभिन्न करने में हेतु है।

        अब रहा वस्तु आदि में परिवर्तन के दर्शन का प्रभाव परिवर्तन का दर्शन होते ही स्वभावतः अविनाशी की जिज्ञासा जागृत होती है । ज्यों-ज्यों जिज्ञासा सबल तथा स्थाई होती जाती है, त्यों-त्यों कामनाएँ स्वतः मिटने लगती हैं । कामनाओं का अन्त होते ही जिज्ञासा की पूर्ति हो जाती है और जिज्ञासा की पूर्ति में ही अमर जीवन निहित है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 24-25) ।