Tuesday, 12 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 12 November 2013  
(कार्तिक शुक्ल दशमीं, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

        इन्द्रिय-दृष्टि की सत्यता का प्रभाव राग उत्पन्न करता है और राग भोग में प्रवृत करता है; किन्तु बुद्धि-दृष्टि की सत्यता राग को वैराग्य में और भोग को योग में परिवर्तित करने में समर्थ है । जब राग वैराग्य में और भोग योग में बदल जाता है, तब दृष्टा में मान्यताओं से अतीत होकर देखने की योग्यता आती है। उससे पूर्व हम जो कुछ देखते हैं, वह किसी-न-किसी मान्यता में आबद्ध होकर ही देखते हैं, अर्थात् उस समय हमारी दृष्टि सीमित रहती है, दूरदर्शिनी नहीं रहती । इस कारण जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही नहीं जान पाते। अतः हम अनेक प्रकार के प्रभाओं में आबद्ध रहते हैं ।

        यह तो सभी को मान्य होगा कि कर्तृत्वकाल में भोग हो सकता है, देखना नहीं; क्योंकि जब हम कुछ करते हैं, तब देखते नहीं और जब देखते हैं, तब करते नहीं । इस दृष्टि से विषयों के उपभोगकाल में विषयों को देख नहीं पाते और जब विषयों को देखते हैं, तब उनका उपभोग नहीं कर सकते । अतः देखना तभी सम्भव हो सकता है, जब उपभोगकाल न हो । 

        भोग-प्रवृति भोग का देखना नहीं, अपितु भोग के आरम्भ का सुख और परिणाम का दुःख भोगना है । सुख-दुःख का भोग करते हुए हम जो स्वतः हो रहा है, उसे यथार्थ देख नहीं सकते। अतः जो हो रहा है, उसको देखने के लिए हमें रागरहित दृष्टि की अपेक्षा है, जो विवेकसिद्ध है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 23) ।