Monday, 11 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 11 November 2013  
(कार्तिक शुक्ल नवमीं, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

        इन्द्रियों की दृष्टि से समस्त विषय सुखद तथा सत्य प्रतीत होते हैं। जबतक इन्द्रिय-दृष्टि का प्रभाव मन पर रहता है, तबतक मन इन्द्रियों के अधीन होकर विषयों की और गतिशील रहता है और जब मन पर बुद्धि-दृष्टि का प्रभाव होने लगता है, तब इन्द्रियों का प्रभाव मिटने लगता है; क्योंकि जो वस्तु इन्द्रिय-दृष्टि से सत्य और सुंदर मालूम होती है, वही वस्तु बुद्धि-दृष्टि से असत्य और असुन्दर मालूम होती है।

        बुद्धि-दृष्टि का प्रभाव होते ही मन विषयों से विमुख हो जाता है । उसके विमुख होते ही इन्द्रियां स्वतः विषयों से विमुख होकर मन में विलीन हो जाती हैं और मन बुद्धि में विलीन हो जाता है । उसके विलीन होते ही बुद्धि सम हो जाती है । फिर उस समता का जो दृष्टा है, वह किसी मान्यता में आबद्ध नहीं हो सकता । उस दृष्टा की दृष्टि में सृष्टि जैसी कोई वस्तु ही नहीं है; क्योंकि समस्त सृष्टि तो बुद्धि के सम होते ही विलीन हो जाती है; केवल समता रह जाती है । उस समता का प्रकाशक जो नित्य-ज्ञान है, उसमें सृष्टि जैसी कोई वस्तु ही नहीं प्रतीत होती, अथवा यों कहो कि उस ज्ञान से अभिन्न होने पर सब प्रकार के अभाओं का अभाव हो जाता है; अर्थात् कामनाओं की निवृति तथा जिज्ञासा की पूर्ति हो जाती है, जो वास्तव में जीवन है ।



- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 22-23) ।