Saturday, 16 November 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 16 November 2013  
(कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

हमारी आवश्यकता

        'अपने लिए अपने से भिन्न की आवश्यकता कदापि नहीं हो सकती', क्योंकि भिन्नता से एकता होना सर्वदा असम्भव है। जिस प्रकार श्रवण ने शब्द से भिन्न कुछ नहीं सुना, नेत्र ने रूप से भिन्न किसी भी काल में कुछ नहीं देखा तथा त्वचा ने स्पर्श से भिन्न, रसना ने रस से भिन्न एवं नासिका ने गन्ध से भिन्न किसी का अनुभव नहीं किया; क्योंकि श्रवण की आकाश तथा शब्द से, नेत्र की अग्नि तथा रूप से, त्वचा की वायु तथा स्पर्श से, रसना की जल तथा रस से और नासिका की पृथ्वी तथा गन्ध से जातीय एकता है। मन-बुद्धि आदि आन्तरिक इन्द्रियों की श्रवण-नेत्र आदि बाह्य इन्द्रियों से एवं प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय की प्रत्येक कर्मेन्द्रिय से जातीय एकता है ।

        यदि ऐसा न होता, तो आन्तरिक इन्द्रियों के अनुरूप बाह्य इन्द्रियाँ चेष्टा न करतीं । आन्तरिक एवं बाह्य इन्द्रियों का कारण-कार्य का सम्बन्ध है । प्रत्येक कार्य अपने कारण में विलीन होता है । कारण कार्य के बिना भी रह सकता है, किन्तु कार्य कारण के बिना नहीं रह सकता । कारण में स्वतन्त्रता अधिक होती है और कार्य में गुणों की विशेषता होती है । कारण सूक्ष्म एवं अव्यक्त होता है और कार्य स्थूल एवं व्यक्त होता है । जो सूक्ष्म एवं अव्यक्त होता है, वह स्थूल एवं व्यक्त की अपेक्षा अधिक विभु होता है। इसी कारण आन्तरिक इन्द्रियों की प्रेरणा से ही बाह्य इन्द्रियाँ प्रवृत होती हैं ।

        उसी प्रकार हमारी अपने निज-स्वरूप, नित्य-जीवन से एकता है । अतः हमारे लिए नित्य-जीवन का अनुभव करना परम अनिवार्य है । शरीर विश्व से भिन्न नहीं हो सकता और हमारी शरीर से काल्पनिक सम्बन्ध के अतिरिक्त जातीय एकता कदापि नहीं हो सकती अर्थात् 'शरीर विश्व के और हम विश्वनाथ से ही अभिन्न हो सकते हैं'; क्योंकि हम स्वभाविक रूप से यही कथन और चिन्तन करते हैं कि शरीर हमारा है; 'हम शरीर हैं', ऐसा कोई भी प्राणी कथन नहीं करता । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 9-10) ।