Wednesday 9 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 09 October 2013  
(आश्विन शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपना कल्याण चाह-रहित होने में है

        अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि कोई अपने को दूसरे की चाह पूरी करने में निर्बल पाता है, तो फिर उसका कल्याण कैसे होगा ? इसका उत्तर यह है कि यदि कोई सचमुच दूसरे की चाह पूरी करने में असमर्थ है, तो उसे अपनी भी कोई चाह नहीं रखनी चाहिए । तब भी साधन-निर्माण हो जाएगा; क्योंकि चाह-रहित होने से कर्तव्यपरायणता की शक्ति स्वत: आ जाती है । किन्तु, यदि कोई अपनी चाह-पूर्ति की तो आशा करता है और दूसरे की चाह-पूर्ति से निराश रहता है, तो यह उसका प्रमाद है, क्रोध है, द्वेष है, जो उसे कर्तव्यनिष्ठ नहीं होने देता, और यह अकल्याण का हेतु है। जिस अंश में हमारे कर्तव्य से दूसरे की चाह की पूर्ति होती है, उसी अंश में हमारा जीवन उदारता तथा प्रेम से भर जाता है, जो कल्याण का हेतु है । और जिस अंश में हम अपनी चाह-पूर्ति की सोचते हैं, उसी अंश में हम परतन्त्र तथा भोगी हो जाते हैं, जो अकल्याण का हेतु है ।

        इससे यह सिद्ध हुआ कि जिसे अचाह-पद अभीष्ट है, उसके लिए दूसरों की चाह-पूर्ति में और अपनी चाह की अपूर्ति में कोई अन्तर नहीं है । कारण कि, अचाह में जो रस है, वह चाह-पूर्ति में नहीं है । चाह-पूर्ति का रस तो पुन: चाह उत्पन्न करता है, और अचाह होने पर पुन: चाह उत्पन्न न होगी । अचाह होने से कोई क्षति नहीं होती, क्योंकि चाह-पूर्ति के पश्चात् भी प्राणी उसी दशा में आ जाता है, जो चाह की उत्पत्ति से पूर्व थी । तो फिर चाह-पूर्ति करने का प्रयत्न ही निरर्थक सिद्ध हुआ । इसी रहस्य को जानकर विचारशील दूसरों की चाह पूरी करते हुए भी स्वयं अचाह रहते हैं ।

        चाह का जन्म अविवेक से होता है । इसी का नाम अमानवता है । अत: अविवेक और अमानवता एक ही बात है। चाह की निवृत्ति विवेक से होती है, और उसी का नाम मानवता है।

        जब आप 'अहम्' से रहित हो जायेंगे, तो राग न रहेगा । राग के न रहने पर भोग-वासनाएँ मिट जायेंगी, और भोग योग में बदल जाएगा । फिर अध्यात्मवाद का जन्म होगा, जो अमर जीवन प्राप्त कराने में समर्थ है । मानवता आ जाने से ही सुन्दर समाज का निर्माण होगा, जो भौतिकवाद की पराकाष्ठा है। मानवता आ जाने से ही परम प्रेम प्राप्त होगा, जो आस्तिक जीवन है और प्रभु-प्राप्ति का साधन है । अतएव अमर जीवन, सुन्दर समाज का निर्माण तथा अगाध, अनन्त नित-नव-रस मानव को मानवता विकसित होने पर प्राप्त हो सकता है । इस दृष्टि से प्रत्येक भाई-बहिन को मानव होने के लिए अथक प्रयत्नशील होना चाहिए । ।। ऊँ ।।

- 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 45-46) ।