Tuesday, 8 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 08 October 2013  
(आश्विन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपना कल्याण चाह-रहित होने में है

        साधना के दो भाग हैं - अचाह होना और दूसरों की हितकारी चाह को पूरा करना । कोई कहे कि यदि हम अचाह रहना चाहते हैं, तो दूसरों की चाह की पूर्ति क्यों करें ।  तो इसका उत्तर यह है कि आप दूसरों की चाह की पूर्ति इसलिए करें कि आप में अचाह होने का बल आ जाय । जो दूसरे की चाह की पूर्ति नहीं करता, वह अचाह नहीं रह सकता। जब दूसरे की चाह हमारा जीवन बन जायगी, तभी हम अचाह हो सकते हैं । समाज के अधिकारों के समूह का नाम ही व्यक्ति का जीवन है । इन अधिकारों की रक्षा कर देना ही अचाह होने का सुगम उपाय है । इससे यह सिद्ध हुआ कि सुन्दर समाज के निर्माण में ही हम अचाह होने की योग्यता सम्पन्न कर सकते हैं। सुन्दर समाज का निर्माण तो हमारी वह साधना है, जो हमे अचाह बना दे और अचाह वह साधना है, जो सुन्दर समाज के निर्माण की योग्यता विकसित कर दे । इससे यह सिद्ध हुआ कि साधना के दो भाग होने पर भी वास्तव में दोनों एक ही हैं। इसका विभाजन नहीं हो सकता ।

        इस दृष्टिकोण से हमें और आपको अपनी वस्तु-स्थिति पर, अर्थात् अपनी वर्तमान दशा पर विचार करना चाहिए। प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक जो प्रवृत्ति हमारे द्वारा होती है, उस प्रवृत्ति से दुसरे के सङ्कल्प की पूर्ति होती है या नहीं, यह देखना चाहिए । यदि हमारी प्रवृत्ति दूसरों के शुद्ध सङ्कल्पों को पूरा करती है, तो हम अवश्य अचाह-पद को प्राप्त कर लेंगे और यदि हमारी प्रवृत्ति दूसरों के द्वारा अपने सङ्कल्प पूरे कराने में रत है, तो हम अचाह न हो सकेंगे । इस प्रकार अपने कल्याण का साधन यह है कि हमारी प्रत्येक प्रवृत्ति में दूसरों का हित निहित हो और किसी का हित न कर सकें, तो निवृत्ति को अपनाकर चाह से मुक्त हों ।  

        अचाह-पद का अर्थ है - सहज निवृत्ति । सहज निवृत्ति का अर्थ है वृति का स्फुरण न होना और स्फुरण न होने का फल है - अपना प्रेम । वृत्तियों के स्फुरण अर्थात् 'स्व'  'पर' की ओर गतिशील होने से ही हम अपने प्रेमास्पद से विमुख होकर संसारोन्मुखी हो जाते हैं, फिर उसमें आसक्त होकर रोगी बन जाते हैं, और रोगी बनकर भोगी बन जाते हैं, फिर भोगी होकर रोगी और रोगी होकर व्यथित हो जाते हैं । इसी का नाम अकल्याण, अमानवता तथा पशुता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 43-45) ।