Monday, 07 October 2013
(आश्विन शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७०, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
अपना कल्याण चाह-रहित होने में है
किसी से कोई पूछे कि तुम खून में, हड्डियों में, मांस में, मज्जा में, मूत्र में रहना चाहते हो? तो,सभी विचारशील यही कहेंगे कि नहीं रहना चाहते । कारण, कि मलिनता किसी को प्रिय नहीं । अब हम स्वयं सोचें कि देह में मलिनता के अतिरिक्त क्या है ? तो मानना होगा कि कुछ नहीं। इससे यह सिद्ध हुआ कि हम मलिनता को अपना कर ही अधिकार लालसा में आबद्ध होते हैं, और जिन्हें निर्मलता प्रिय है, वे कर्तव्यपरायण होते हैं । जब हम मल-मूत्र से अलग रहें, तो अधिकार की कौन-सी माँग आती है, आप बताइये ? कोई भाई-बहिन बताये कि अपने को देह से अलग मान कर आपको कौन-से अधिकार चाहिए ? मान चाहिए तो देह बन कर, वस्तु चाहिए तो देह बन कर, भोग चाहिए तो देह बनकर, कोई परिस्थिति विशेष चाहिए तो देह बनकर, व्यक्ति विशेष की जरूरत हो तो देह बनकर । तीनों देह से असंग होने पर न किसी व्यक्ति की जरूरत होती है, न किसी अवस्था की और न किसी परिस्थिति की । फिर भला, क्या शेष रह जाता है ?
जब अपने को देह से अलग अनुभव करते हैं, तब निर्वासना आ जाती है और जीवन प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है । देह से अलग होने पर ही निर्वासना पद प्राप्त होता है और प्रेम का उदय होता है। कारण कि, चाह-रहित प्राणी ही प्रेम कर सकता है । जो कुछ नहीं चाहता, वही प्रेम कर सकता है और जो कुछ नहीं चाहता, वही मुक्त हो सकता है । स्वाधीनता तथा प्रेम-पूर्ण जीवन ही कल्याणयुक्त जीवन है । कल्याण का अर्थ है, जहाँ अगाध अनन्त नित-नव रस हो । वही अमर जीवन है । जहाँ देह है, वहीं मृत्यु है । देह से अतीत जीवन तो चिन्मय है और वही अमरत्व है।
देह से अलग होकर कोई वासना उत्पन्न नहीं होती । जहाँ वासना की उत्पत्ति नहीं है, वहाँ स्वाधीनता और मुक्ति होगी और जहाँ स्वाधीनता होगी, वहाँ प्रेम अवश्य होगा । तो भाई ! प्रेम रहे, जीवन रहे, स्वाधीनता रहे, इसका का नाम हुआ - कल्याण ।
जहाँ मृत्यु प्रवेश कर सके, जहाँ पराधीनता आ सके और जहाँ बन्धन हो, इसी का नाम अकल्याण है । तो हमारा कल्याण किस पर निर्भर है ? हमारे कर्तव्य और हमारी साधना पर, न कि किसी दूसरे के कर्तव्य पर । यदि कल्याण चाहने वाले भाई-बहिन यह सोचते हैं कि हमारा कल्याण किसी और पर निर्भर है, तो मानना पड़ेगा कि वे अपना कल्याण नहीं चाहते । आपका कल्याण तो आप पर ही निर्भर है, अर्थात् आपके साधन पर निर्भर है।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 42-43) ।