Sunday, 06 October 2013
(आश्विन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७०, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
अपना कल्याण चाह-रहित होने में है
अब विचार यह करना है कि चाह की उत्पत्ति कब होती है और क्यों होती है ? चाह की उत्पत्ति तब होती है, जब हम अपने को मानव न मान कर देह मान लेते हैं । आप कहेंगे कि देह मानने और मानव मानने में क्या भेद है ? इसमें एक भेद है - देह मान कर हम अधिकार-लालसा में आबद्ध होते हैं और मानव मानकर कर्त्तव्य-पालन में प्रवृत्त होते हैं । जिस समय जीवन में अधिकार लिप्सा दिखाई देती है, उसी समय विचार करना चाहिए कि हम देह हैं या मानव? यदि आपको स्मरण आ जाय कि हम देह नहीं हैं, हम तो मानव हैं, तो आप स्वयं कहने लग जायेंगे कि हमें तो दूसरे के अधिकार की रक्षा करनी है, 'अपने' को कुछ अधिकार लालसा नहीं है ।
आप विचार करके देखें, जो रोगी है वह यह चाहता है कि स्वस्थ व्यक्ति उसकी सेवा करे । बेचारा रोगी क्या सुखी होकर सेवा कराना चाहता है ? कदापि नहीं । सुखी तो सेवा करता है। आपको मानना पड़ेगा कि सेवा करने वाला तो सुखी सिद्ध होता है, और सेवा कराने वाला दुखी । तो, अधिकार माँगने का अर्थ क्या हुआ ? इसका अर्थ अपने को दुखी सिद्ध करना और अधिकार देने का अर्थ क्या हुआ ? अपने को सुखी सिद्ध करना । तो आप सोचिये कि क्या हम अपने को दुखी स्वीकार करें या सुखी सिद्ध करें ? आपको कहना पड़ेगा कि अपने को दुखी स्वीकार करना किसी को भी अभीष्ट नहीं है । अपने को सुखी सिद्ध करना ही सबको अभीष्ट है । यह स्वभाव मानव का स्वभाव है ।
मानव को तो केवल अपना कर्त्तव्य दिखाई पड़ता है, अधिकार नहीं । मानवता विकसित होने पर अधिकार-लालसा शेष नहीं रह जाती, और जब अविवेक के कारण मानवता नहीं रह जाती और देहाभिमान जाग्रत होता है, तब केवल अधिकार ही दिखाई देते हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि हममें जो अधिकार की लालसा है, वह अपने को देह मानने पर ही होती है, जो प्रमाद है। तो क्या हम देह में आबद्ध होकर रहना पसन्द करेंगे ? कदापि नहीं ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 40-42) ।