Thursday, 10 October 2013
(आश्विन शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति
मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव !
कल सेवा में निवेदन किया था कि साधना का सार चाह-रहित होना अथवा समाज की चाह की पूर्ति करना है । अचाह होने के लिये सबसे प्रथम आवश्यकता इस बात की है कि हम यह जान लें कि चाह की उत्पत्ति का कारण क्या है ? चाह की उत्पत्ति का कारण यदि विवेकदृष्टि से देखा जाय, तो एकमात्र अविवेक है । और अविवेक क्या है ? अविवेक कहते हैं - विवेक के अनादर को । अविवेक का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । जो विवेक है, उसका हम अनादर करते हैं, अर्थात् जाने हुए को नहीं मानते । इसी का नाम अविवेक है ।
किसी भाई से यह कहा जाय कि क्या वह वही है जो कुछ काल पूर्व अमुक स्कूल में हमारे साथ पढ़ता था ? तो वह कहेगा, हाँ ! में वही हूँ; परन्तु अब मैं अमुक पद पर नियुक्त हो गया हूँ और पूछने वाला भी यह कहेगा कि भाई, मैं भी वही हूँ, पर मैं भिखारी बन गया हूँ । दोनों की अवस्था में बड़ा भेद है, किन्तु दोनों के इस ज्ञान में भेद नहीं है कि मैं वही हूँ । जो आज एक पद-विशेष पर स्थित है और जो एक दीनता में आबद्ध है, वे दोनों यही जानते हैं कि हम दोनों वही हैं, जो पहले थे । परिस्थितियों का भेद होने पर भी अपना भेद स्वीकार नहीं करते ।
इससे यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि परिस्थिति में और अपने में भिन्नता है । इस भिन्नता को जानकर भी परिस्थिति से अभिन्न रहना अविवेक है । हम जानते हैं कि हम और हमारी अवस्था, और हम और हमारी परिस्थिति तथा हम और हमारी वस्तुएँ परस्पर भिन्न हैं । परन्तु यह जानते हुए भी हम परिस्थिति से ही अपने को मिला लेते हैं । जहाँ हमने अपने को किसी परिस्थिति से मिलाया, वहीं किसी-न-किसी प्रकार की चाह उत्पन्न हुई । इस प्रकार चाह की उत्पत्ति का मूल कारण निजविवेक का अनादर ही हुआ ।
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह आ जाता है कि हम जाने हुए का अनादर क्यों करते हैं ? इसका कारण क्या है ? इसपर यदि आप विचार करें, तो यह विदित होगा कि जाने हुए का अनादर करने में कोई बाह्य हेतु नहीं है, कि किसी परिस्थिति ने हमें ऐसा बना दिया कि हम जाने हुए का अनादर करें और न किसी और व्यक्ति ने ऐसा कर दिया कि हम जाने हुए का अनादर करें । जाने हुए के अनादर का एकमात्र कारण परिस्थिति द्वारा सुख लेने की आसक्ति है, और कोई कारण नहीं ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 47-48) ।