Friday, 11 October 2013
(आश्विन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति
परिस्थिति द्वारा सुख लेने की आसक्ति क्या है ? यह मानना होगा कि परिस्थिति में और अपने में हमने जो एकता मान ली है, उस एकता की सत्यता इतनी दृढ़ हो गई है कि हमारी सत्ता से परिस्थिति सत्ता पाकर हम पर ही शासन करने लगी है। परिस्थिति अपनी सत्ता से हम पर शासन नहीं करती, किन्तु सत्ता हमसे लेती है, चेतना हमसे लेती है और हम पर ही शासन करती है । यही कारण है परिस्थितियों में सुख की आसक्ति होने का । यदि हम अपनी सत्ता को परिस्थितयों से असङ्ग कर लें, तो बेचारी परिस्थिति कभी हमें मुँह नहीं दिखाती, न हम पर शासन ही करती है, न हमें कभी दीन या अभिमानी ही बनाती है और न हममें चाह उत्पन्न करती है ।
सभी विकार हमारे इस प्रमाद से उत्पन्न हुए हैं कि हमने अपनी सत्ता परिस्थिति को देकर अपने को परिस्थिति का दास बना लिया है । यदि विवेकी साधक परिस्थिति से अपनी सत्ता वापस ले ले, असंग हो जाय, विमुख हो जाय, तो बड़ी सुगमता से अचाह-पद को प्राप्त कर सकता है । अचाह होने पर प्रतिकूल परिस्थिति भी अनकुलता में बदल जाती है और अनुकूल परिस्थिति से असङ्ग्ता आ जाती है । यह अचाह की महिमा है। इस महिमा पर जिनका विश्वास हो जाता है, अथवा इस महिमा को जो अनुभव कर लेते हैं, वे बड़ी सुगमता से प्रतिकूल और अनुकूल परिस्थितियों का सदुपयोग कर अपने को परिस्थितियों से असंग कर लेते हैं। परिस्थितियों के सदुपयोग का नाम ही वास्तव में कर्तव्य-परायणता है । कारण कि, ऐसा कोई कर्तव्य नहीं है, जो किसी परिस्थिति से सम्बन्धित न हो ।
अत: हमें अपनी परिस्थिति से भयभीत नहीं होना चाहिए और न उसकी दासता में ही आबद्ध होना चाहिए । न अप्राप्त परिस्थितियों का आह्वान् करना चाहिए और न प्राप्त परिस्थितियों से घृणा करनी चाहिए, चाहे वे दीखने में कितनी ही प्रतिकूल हों । हमें प्राप्त परिस्थिति का आदरपूर्वक स्वागत करते हुए उसका सदुपयोग करने में प्रयत्नशील रहना चाहिए । इससे हम और आप बड़ी ही सुगमतापूर्वक परिस्थितियों की दासता से मुक्त हो जायेंगे । परिस्थितियों की दासता से मुक्त होना ही मुक्ति है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 48-50) ।