Saturday 12 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 12 October 2013  
(आश्विन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        एक बात बहुत गम्भीरता से विचार करने की यह है कि मुक्त होना भी साधना ही है, साध्य नहीं। यहाँ कुछ जिज्ञासु सोचने लगेंगे कि भाई, मुक्ति के बाद तो कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता है, फिर यह कैसे कहते हैं कि मुक्ति भी साधन ही है । आप विचार करें, किसी भूख से पीड़ित प्राणी से पूछें कि भोजन का करना अथवा भूख का दूर होना, ये दो बातें हैं या एक ? तो, वह कहेगा - 'जितने-जितने अंश में हम भोजन करते हैं, उतने-उतने अंश में भूख से मुक्ति होती जाती है।' भोजन की पूर्णता और भूख से मुक्ति एक ही वस्तु हुई । जब उससे पूछा जाय कि भाई, भूख से जो मुक्ति मिली, वह किस लिए ? तो वह कहेगा कि तृप्ति के लिए । तो क्या मुक्ति से तृप्ति कोई अलग चीज है ? तो कहेगा, यह तो नहीं कह सकता कि मुक्ति और तृप्ति में कितना भेद है ? पर यह अवश्य कह सकता हूँ कि मुक्ति के पश्चात् ही तृप्ति होती है ।

        यह नियम है कि जो जिसके पश्चात् आती है, वह उसी का साध्य होता है और जिसके द्वारा आती है, वह साधन होता है। इस दृष्टि से परिस्थिति से मुक्त होना भी एक साधन ही सिद्ध हुआ । परन्तु, जो लोग इसी से सन्तुष्ट हो जाते हैं, वे कुछ काल के लिये उसे साध्य मान सकते हैं । जैसे, इच्छित वस्तु मिलने पर कुछ काल के लिए सभी को तृप्ति का अनुभव  होता है। परन्तु कालान्तर में फिर एक नई इच्छा उत्पन्न होती है । इसी प्रकार मुक्ति प्राप्त हो जाने पर एक ऐसे अनुपम जीवन का उदय होता है जिसमें न तो किसी प्रकार का अभाव ही है और न चाह की उत्पत्ति ही है । इस प्रकार अचाह पद साधन है नित्य तृप्ति का।

        अब विचार यह करना है कि अचाह साधन कब है? वासनाओं की निवृति में । अचाह साध्य कब है ? लक्ष्य की पूर्ति में । क्योंकि चाह की पूर्ति में भी एक अचाह है और चाह की निवृत्ति में भी एक अचाह है । तो चाह की निवृत्ति में और पूर्ति में क्या अन्तर है ? चाह की निवृत्ति की बात वहीं कही जाती है, जहाँ परिस्थिति से सम्बन्ध रखने वाली चाह की उत्पत्ति हो और चाह की पूर्ति की बात वहाँ कही जाती है, जहाँ परिस्थितियों से अतीत चिन्मय जीवन हो । चिन्मय जीवन की प्राप्ति को चाह की पूर्ति और वासनाओं की निवृत्ति को चाह की निवृत्ति कहेंगे। चाह की निवृत्ति और चाह की पूर्ति, ये दोनों एक मालूम होते हुए भी एक बड़ा ही विचित्र भेद रखती हैं । चाह की निवृत्ति में दुःख की निवृत्ति निहित है और चाह की पूर्ति में आनन्द की उपलब्धि निहित है । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 50-51) ।