Sunday 13 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 13 October 2013  
(आश्विन शुक्ल विजयादशमी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        दुःख की निवृत्ति और आनन्द की उपलब्धि, इन दोनों को जो मानते हैं, वे चाह की निवृत्ति के साथ-साथ चाह की पूर्ति की भी चर्चा करते हैं और जो केवल दुःख की निवृत्ति को ही साध्य मानते हैं, वे अचाह-पद को प्राप्त कर मौन हो जाते हैं । इसका मतलब यह नहीं है कि चाह की निवृत्ति के पश्चात् चाह की पूर्ति नहीं हुई । मिलता क्या है ? मिलता वह है, जो सत्य है । सत्य उसे नहीं कहते, जो किसी के न मानने से अथवा किसी के वर्णन न करने से न रहे । सत्य तो उसे कहते हैं, जो आप जानें तो सत्य, न जानें तो सत्य, मानें तो सत्य, न मानें तो सत्य और उसके सम्बन्ध में मौन रहें तो सत्य । अत: दुःख की निवृत्ति के पश्चात् जो उपलब्ध होता है, उसका नाम सत्य है । तो, अन्तर केवल इतना रहा कि जिन्होंने वर्तमान पर ही विचार किया और भविष्य के लिए मौन हो गए, वे तो यही कहेंगे कि चाह की निवृत्ति ही जीवन है । और जिन्होंने वर्तमान के परिणामों पर भी विचार किया, वे कहेंगे कि चाह की पूर्ति भी जीवन है । अर्थात् दुःख की निवृत्ति भी जीवन है और आनन्द की उपलब्धि भी जीवन है ।

        एक बार मैं अपने एक साथी से चर्चा कर रहा था । दूसरे भाई ने पूछा कि आपके और उनके विचारों में क्या भेद है? उन्होंने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा कि मैं तो यह कहता हूँ कि गरमी मिट जायगी और स्वामी जी यह कहते हैं कि ठण्डा बगीचा भी मिल जाएगा । और कोई अन्तर नहीं है ।

        तो, मेरा आग्रह यह नहीं है कि हर एक भाई चाह की निवृत्ति और चाह की पूर्ति दोनों को ही मानें । किन्तु निवेदन यह है कि चाह की निवृत्ति में आपका पुरुषार्थ अपेक्षित है और चाह की निवृत्ति के पश्चात् जिस जीवन से अभिन्नता होती है, उसमें कोई प्रयत्न अपेक्षित नहीं रहता, क्योंकि चाह का समूह जो सीमित अहम् था, वह चाह की निवृत्ति से मिट जाता है । प्रयत्न का जन्म जिस अहम् से होता है, वह अहम् नहीं रहा ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 51-53) ।