Friday, 4 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 04 October 2013  
(आश्विन कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपना कल्याण चाह-रहित होने में है

        संसार की चाह निवृत्त होने पर अपना अस्तित्व एक मात्र अचाह-युक्त प्रीति ही रह जाती है, जो प्रभु को प्रिय है। यदि हम उसे प्रभु की आवश्यकता कह दें, तो अत्युक्ति न होगी । प्रीति प्रभु को और प्रभु प्रीति को सदैव चाहते हैं । किन्तु प्रीति का स्वरूप वास्तव में चाह-रहित ही है, क्योकि प्रेम चाह-युक्त नहीं हो सकता । अत: यह सिद्ध हो जाता है कि हमें वास्तव में अचाह ही होना है । 

        आप विचार करके देखें, तो आपको यह स्पष्ट सिद्ध हो जाएगा कि 'आप' बड़े ही सुन्दर हैं । 'आप' का अर्थ आपका शरीर या 'अहम्' भाव नहीं, बल्कि आप में छिपी हुई मानवता अथवा आपकी साधना है । आपकी साधना का जो समूह है, उसी का नाम मानवता है और उसी का फल कल्याण है । तो कल्याण का अर्थ क्या हुआ ? जिसकी माँग प्रभु को हो और जिसकी माँग संसार को भी हो, जो इतनी प्यारी वस्तु हो कि जिसके लिए संसार तरसता हो और जिसको बिना अपनाये भगवान् भी न रह सकें । 

        भगवत् प्रेम के बिना कल्याण बन नहीं सकता । यदि आप आस्तिक दृष्टिकोण से विचार करें, तो यह आपको मानना ही होगा कि भगवान् को आपकी प्रीति की माँग है । आपकी प्रीति भगवान् को अभीष्ट है और आपके सदाचार, आपके संयम, आपकी सेवा की आवश्यकता संसार को है । इन दोनों दृष्टियों को सामने रखकर आप यह कह सकेंगे कि सदाचार-युक्त जीवन ही संसार को अभीष्ट है । 

        परन्तु, इससे आप यह न समझें कि संसार को आपका शरीर अभीष्ट है । आप जो शरीर को अपना अस्तित्व मानते हैं, यह तो आपका और हमारा अविवेक है । शरीर हमारा अस्तित्व नहीं है । हमारी जो साधना है, हमारा जो आचरण है, वही हमारा अस्तित्व है । शरीर के न रहने पर भी आपका आचरण तथा आपकी साधना एवम् विचारधारा बनी रहेगी और समाज में विधान के रूप में आदर पाती रहेगी । शरीर नहीं रहेगा, बोलने वाली वाणी नहीं रहेगी, पर बोली हुई मधुरता सदैव रहेगी, बोली हुई सत्यता सदैव रहेगी । संकल्प करने वाला मन न रहेगा, लेकिन शुद्ध संकल्प सदैव रहेगा । विवेक का प्रकाश करने वाली बुद्धि न रहेगी, पर विवेक रहेगा । इस  दृष्टिकोण से साधन-तत्व भी नित्य है और साध्य-तत्व भी नित्य है । प्रीति नित्य है, और प्रीतम भी नित्य है ।  इससे यह सिद्ध हुआ कि आपका अस्तित्व अजर-अमर होकर रहेगा, क्योंकि उसकी माँग जगत् को है, उसकी माँग प्रभु को है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 37-39) ।