Thursday 3 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 03 October 2013  
(आश्विन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपना कल्याण चाह-रहित होने में है

        मानवता हमें एक विचित्र बात बताती है, और वह यह कि हमारे द्वारा भले ही संसार का अस्तित्व सिद्ध हो, किन्तु हमें अपने अस्तित्व के लिए संसार की अपेक्षा नहीं । आप कहेंगे कि संसार तो इतना बड़ा है कि हम उसके सामने नहीं के बराबर हैं, फिर भला हमारे द्वारा संसार का अस्तित्व सिद्ध हो और संसार द्वारा हमारा अस्तित्व सिद्ध न हो, यह तो एक पागलपन की बात मालुम होती है। आपका कथन ठीक है । लेकिन यह ठीक कब तक ? जब तक कि हम राग के शिकार बने हुए हैं । जब तक हमारे जीवन में राग की दासता मौजूद है, तब तक यही ठीक मालुम होगा कि संसार के अस्तित्व से हमारा अस्तित्व है । 

        परन्तु जिस समय हमारे मन से राग दूर हो जाएगा, उस समय यह स्वत: स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे द्वारा संसार का अस्तित्व है । संसार की बड़ी-से-बड़ी वासना हमें उसी समय तक अपनी ओर आकर्षित करती है, जब तक कि हमारे मन में किसी प्रकार का राग है । राग की दृष्टि से ऐसा सोचना ठीक है कि संसार के अस्तित्व पर हमारा अस्तित्व निर्भर है, किन्तु राग-रहित होने पर यह बात न रहेगी और हम स्वयं यह अनुभव करेंगे कि संसार के अस्तित्व पर हमारा अस्तित्व निर्भर नहीं है - हमारा एक स्वतन्त्र अस्तित्व है । वह स्वतन्त्र अस्तित्व क्या है? साधन-तत्व । कोई भाई यह न समझ बैठें कि यह स्थूल देह ही साधन-तत्व है । वास्तव में साधन-तत्त्व का स्वरूप है - जगत् के अधिकारों की रक्षा और भगवत्-विश्वास, सम्बन्ध, प्रीति एवं तत्व-जिज्ञासा । 

        अब विचार करें कि मानवता क्या हुई ? भगवान् की प्रीति, जगत् के अधिकारों की रक्षा तथा तत्व-साक्षात्कार । इसी मानवता को साधन-तत्व कहते हैं । राग-रहित प्रवृत्ति को चाहे आप सदाचार कहें, संसार का अधिकार कहें, धर्म कहें या कर्त्तव्य कहें, इन्हीं कल्पनाओं तथा मान्यताओं से आप अपने अस्तित्व को प्रकाशित कर सकते हैं ।

        हमारी साधना की आवश्यकता संसार को सदैव है और हमारी प्रीति भगवान् को भी प्रिय है । अब यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि क्या हमारी साधना ऐसी महत्वपूर्ण वस्तु है, जिसकी आवश्यकता भगवान् को भी है और संसार को भी है।  निःसन्देह यही सत्य है । आप विचार करें, क्या भगवान् ने अनेक बार यह नहीं कहा कि मेरी शरण में आओ ? शरणागति साधना नहीं, तो क्या है ? और क्या संसार आपके सामने नहीं कहता कि हमारे अधिकार की रक्षा करो ? अब विचार करो, संसार भी आपके सामने अधिकार की रक्षा के लिए आता है और भगवान् भी आपसे कहते हैं कि तू मेरी शरण में आ जा । 

        तात्पर्य क्या है ? तुम्हारी माँग संसार को भी है और भगवान् को भी । अन्तर केवल इतना है कि संसार को तो तुम्हारी माँग अपनी कामनापूर्ति के लिए है और भगवान् को तुम्हारे ही कल्याण के लिए है । कारण कि, वे स्वभाव से ही प्राणी के परम सुहृदय हैं । यदि कोई कहे कि जिस संसार को हमारी माँग है, क्या उस संसार की हमें माँग नहीं है ? तो उत्तर है, कदापि नहीं। कारण कि, अपने को देह से अतीत अनुभव करने पर किसी को भी संसार की चाह नहीं रहती । अत: यह सिद्ध हुआ कि हमें संसार की चाह नहीं है, किन्तु जब हम अविवेक के कारण देह से मानी हुई एकता स्वीकार कर लेते हैं, तब हमें अपने में संसार की चाह का भास-मात्र होता है, वास्तव में नहीं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 35-37) ।