Wednesday 2 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 02 October 2013  
(आश्विन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपना कल्याण चाह-रहित होने में है

        हमारे कल्याण का अर्थ क्या है ? हमारे कल्याण का अर्थ यही है कि हमें किसी प्रकार के अभाव का अनुभव न हो । इसके प्राप्त करने में हम और आप पराधीन नहीं हैं । कारण कि, जितने भी अभाव हमारे जीवन में हैं, उन सबका मूल एकमात्र राग है । राग-रहित होने पर किसी प्रकार का अभाव नहीं रह जाता । राग-रहित होने के दो उपाय हैं - एक तो यह कि अपने पर दूसरों का जो अधिकार है, उसकी पूर्ति कर दी जाय और दूसरा यह कि अविवेक के कारण दूसरों पर अपना जो अधिकार मान लिया था, उसकी लालसा का त्याग कर दिया जाय । यदि आप विचार करके देखें तो यह आपको स्वत: अनुभव होगा कि अधिकार-लालसा भी अपने में किसी अभाव की ही सूचक है और कुछ नहीं । जब हम किसी पर अपना अधिकार मानते हैं, तब हमारा जो मूल्य है, वह जिस पर हम अपना अधिकार मानते हैं, उससे घट जाता है । कहते तो यह हैं कि हमारा अधिकार ही हमारा अस्तित्व है, परन्तु वास्तव में विचार करके देखें, तो यह सिद्ध हो जाएगा कि अधिकार माँगने वाले का कोई अस्तित्व नहीं होता ।

        अस्तित्व तो उसका होता है जो अधिकार की पूर्ति करता है, क्योंकि अधिकार-लालसा से ही हम अभाव में आबद्ध हो जाते हैं। अभाव का अस्तित्व कोई भी विचारक स्वीकार नहीं करता, अभाव में अस्तित्व का भास अविचार-सिद्ध ही है । अत: जब कई लोग दूसरों से अधिकार माँगते हैं और अधिकार देने वालों पर शासन करते हैं तथा अपना महत्व भी प्रकाशित करते हैं, तो इसे बड़े आश्चर्य की बात मानना चाहिए, क्योंकि अधिकार-लालसा के द्वारा अपना अस्तित्व खोकर भी वे अपना महत्व प्रकाशित करते हैं । वास्तव में तो वे अस्तित्व-हीन और परतन्त्र हो जाते हैं और अभाव में आबद्ध हो जाते हैं ।

        हम अपने अस्तित्व को कैसे जानें और अभाव की वेदना से कैसे मुक्त हों ? इसी लालसा का नाम कल्याण की लालसा है। हमारा कल्याण केवल इसी बात में निहित है कि हम अपने सभी अधिकारों का त्याग कर दें । आप कहेंगे कि अधिकारों का त्याग करने के पश्चात् तो हमारा जीवन ही न रहेगा । तो भाई ! विचार तो करो, जब आपका अस्तित्व दूसरे के कर्त्तव्य पर निर्भर है, दूसरे की उदारता पर निर्भर है, दूसरे की ईमानदारी पर निर्भर है, तो अस्तित्व आपका सिद्ध हुआ अथवा जिस पर आपका अस्तित्व निर्भर है, उसका ? यदि हमारा अस्तित्व तभी रह सकता है, जब हमारे अधिकार सुरक्षित हों; जो दूसरे के कर्त्तव्य, उदारता और ईमानदारी पर निर्भर है, तो इससे यह सिद्ध हुआ कि दूसरे की उदारता, ईमानदारी और कर्त्तव्य को हम अपना अस्तित्व मानते हैं । किन्तु इससे अपने अस्तित्व की सिद्धि नहीं होती । 

        अपना अस्तित्व तभी सिद्ध हो सकता है, जब आपको अपने लिए किसी दूसरे की अपेक्षा न हो । जिसको अपने लिए दूसरे की अपेक्षा नहीं रहती, वास्तव में उसी का अस्तित्व सिद्ध होता है, और जिसको अपने लिए दूसरे की अपेक्षा रहती है, उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता । किन्तु साधारण प्राणी दूसरों के कर्त्तव्य पर ही अपना अस्तित्व जीवित रखना चाहते हैं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 32-35) ।