Tuesday, 1 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 01 October 2013  
(आश्विन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अपना कल्याण चाह-रहित होने में है

        योग ही कल्पवृक्ष है, अर्थात् योग प्राप्त होने पर हमें वह शक्ति स्वत: प्राप्त हो जाती है, जिसके द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है। जब चित्त वीतराग हो जाता है, तब इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर मन में विलीन हो जाती हैं, फिर मन बुद्धि में विलीन हो जाता है और बुद्धि सम हो जाती है । बुद्धि के सम होते ही दृश्य अर्थात् जिसे हम 'यह' कहते थे और दर्शन अर्थात् जिसके द्वारा 'यह' की प्रतीति होती थी, वे दोनों अपने में ही अर्थात् द्रष्टा में ही विलीन हो जायेंगे और त्रिपुटी का अभाव हो जाएगा । त्रिपुटी का अभाव होते ही चिर-शान्ति तथा स्थायी प्रसन्नता स्वतः प्राप्त होगी । 

        यह नियम है कि जहाँ शान्ति तथा प्रसन्नता आ जाती है, वहाँ निर्वासना स्वतः आ जाती है । कारण कि, शान्ति और प्रसन्नता खिन्नता और नीरसता को खा लेती है । खिन्नता और नीरसता-रहित जीवन वासना-रहित जीवन हो जाता है । यह सभी का अनुभव है कि वासना-रहित जीवन में पराधीनता शेष नहीं रहती, अर्थात् एक ऐसी अनुपम स्वाधीनता प्राप्त होती है, जिसको पाकर फिर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता । बस, यही कल्याण का स्वरूप है । जब तक हमें कुछ प्राप्त करना शेष है, जब तक हम किसी भी अभाव का अनुभब करते हैं, तब तक हमें मानना होगा कि हमारा कल्याण नहीं हुआ; जैसे पेट भर जाने पर भूख की वेदना स्वत: शान्त हो जाती है और फिर न भोजन की ही आवश्यकता रहती है और न उसका चिन्तन ही होता है, वैसे ही अभाव का अभाव होने पर जीवन में स्वत: एक ऐसी अनुपम अलौकिकता आ जाती है कि फिर कुछ करना या पाना शेष नहीं रहता । ऐसे जीवन का नाम ही कल्याणयुक्त जीवन है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 31-32) ।